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कदम्ब के फूल

3 मार्च 2022

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(१)
“भौजी ! लो मैं लाया ।”
“सच ले आए ! कहाँ मिले ?” ।
“अरे ! बड़ी मुश्किल से ला पाया, भौजी !”
“तो मजदूरी ले लेना ।”
“क्या दोगी ?”
“तुम जो माँगो।”
“पर मेरी मांगी हुई चीज़ मुझे दे भी सकोगी ?”
“क्यों न दे सकूँगी ? तुम मेरी वस्तु मेरे लिए ला सकते हो तो क्या मैं तुम्हारी इच्छित वस्तु तुम्हें नहीं दे सकती?"
“नहीं भौजी न दे सकोगी; फिर क्यों नाहक कहती हो?"
"अब तुम्हीं न लेना चाहो तो बात दूसरी है; पर मैंने तो कह दिया कि तुम जो माँगोगे मैं वही दूंगी ।”
"अच्छा अभी जाने दो, समय आने पर माँग लूंगा” कहते हुए मोहन ने अपने घर की राह ली । दूर से आती हुई भामा की सास ने मोहन को कुछ दोने में लिए हुए घर के भीतर जाते हुए देखा था। किन्तु वह ज्यों ही नज़दीक पहुँची मोहन दूसरे रास्ते से अपने घर की तरफ़ जा चुका था। वे मोहन से कुछ पूछ न सकीं पर उन्होंने यह अपनी आँखों से देखा था कि मोहन कुछ दोने में लाया है; किन्तु क्या लाया है यह न जान सकीं ।
(२)
घर आते ही उन्होंने बहू से पूछा--"मोहन दोने में क्या लाया था ?" भामा मन ही मन मुस्कुराई बोली-मिठाई ।
बुढ़िया क्रोध से तिलमिला उठी; बोली-“इतना खाती है; दिन भर बकरी की तरह मुँह चला ही करता है; फिर भी पेट नहीं भरता । बाजार से भी मिठाई मंगा-मंगा के खाती है। अभी मैं न देखती तो क्या तू कभी बतलाती ?
भामा-( मुस्कराते हुए) “तो बतलाती क्यों ? कुछ बतलाने के लिए थोड़े ही मंगवाई थी ?”
-“क्यों क्या मैं घर में कोई चीज ही नहीं हूँ ? तेरे लिए तो मिठाई के लिए पैसे हैं। मैं चार पैसे दान- दक्षिणा के लिए मांगूं तो सदा मुँह से नाहीं निकलती है। तेरा आदमी है; तो मेरा भी तो बेटा है। क्या उसकी कमाई में मेरा कोई हक़ ही नहीं । मुझे तो दो चार सूखी रोटी छोड़ कर कुछ भी न नसीब हो और तू मिठाई मंगा-मंगा के खाए । कर ले जितना तेरा जी चाहे । भगवान तो ऊपर से देख रहा है । वह तो सज़ा देगा ही।"
-(मुस्कराते हुए ) "क्यों कोस रही हो माँजी ! मिठाई एक दिन खा ही ली तो क्या हो गया ? अभी रखी है; तुम भी ले लेना।"
“चल, रहने दे । अब इन मीठे पुचकारों से किसी और को बहकाना; मैं तेरे हाल सब जानती हूँ। तू समझती होगी कि तू जो कुछ करती है, वह कोई नहीं जानता । मैं तो तेरी नस-नस पहिचानती हूँ । दुनियां में बहुत सी औरतें देखी हैं, पर सब तेरे तले तले ।"
(मुस्कराते हुए) “सब मेरे तले-तले न रहेंगी तो करेंगी क्या ? मेरी बराबरी कर लेना मामूली बात नहीं है। मैं ऐसी-वैसी थोड़े हूँ।”
-"चल चल; बहुत बड़प्पन न बघार; नहीं तो सब बड़प्पन निकाल दूँगी।"
भामा अब कुछ चिढ़ गई थी, बोली- बड़प्पन कैसे निकालोगी मां जी, क्या मारोगी ?"
मां जी को और भी क्रोध आ गया और बोलीं-"मारूंगी भी तो मुझे कौन रोक लेगा ? मैं गंगा को मार सकती हूँ, तो क्या तुझे मारने में कोई मेरा हाथ पकड़ लेगा ?”
-मारो, देखूँ कैसे मारती हो ? मुझे वह बहू न समझ लेना जो सास की मार चुपचाप सह लेती हैं ।”
--"तो क्या तू भी मुझे मारेगी ? बाप रे बाप ! इसने तो घड़ी भर में मेरा पानी उतार दिया । मुझे मारने कहती है । आने दे गंगा को मैं कहती हूँ कि भाई तेरी स्त्री की मार सह कर अब मैं घर में न रह सकूँगी; मुझे अलग झोपड़ा डाल दे; मैं वहीं पड़ी रहूँगी । जिस घर में बहू सास को मारने के लिए खड़ी हो जाय वहाँ रहने का धरम नहीं। यह कहते- कहते मां जी जोर-जोर से रोने लगीं ।”
भामा ने देखा कि बात बहुत बढ़ गई; अतः वह बोली-“मैंने तुम्हें मारने को तो नहीं कहा मां जी ! क्यों झूठमूंठ कहती हो। हाँ, मैं मार तो चुपचाप किसी की न सहूँगी । अपने मां-बाप की नहीं सही तो किसी और की क्या सहूँगी ?
“चुपचाप न सहेगी तो मुझे भी मारेगी न ? वही बात तो हुई। यह मखमल में लपेट-लपेट कर कहती है तो क्या मेरी समझ में नहीं आता ।”
मांजी के जोर-जोर से रोने के कारण आसपास की कई स्त्रियां इकट्ठी हो गईं। कई भामा की तरफ़ सहानुभूति रखने वाली थीं कई मांजी की तरफ; पर इस समय मांजी को फूटफूट कर रोते देखकर सब ने भामा को ही भला-बुरा कहा । सब मांजी को घेरकर बैठ गईं । भामा अपराधिनी की तरह घर के भीतर चली गई । भामा ने सुना सांजी आसपास बैठी हुई स्त्रियों से कह रही थीं-आप तो दोना भर-भर मिठाई मंगा-मंगा कर खाती है । और मैंने कभी अपने लिए पैस-धेले की चीज़ के लिए भी कहा तो फ़ौरन ही टका-सा जवाब दे देती है, कहती है पैसा ही नहीं है। इसके नाम से पैसे आ जाते हैं; मेरे नाम से कंगाली छा जाती है। किसी भी चीज़ के लिए तरस-तरस के मांग-मांग के जीभ घिस जाती है; तब जी में आया तो ला दिया नहीं तो कुत्ते की तरह भूँका करो। यह मेरा इस घर में हाल है। आज भी दोना भर मिठाई मंगवाई है। मैंने ज़रा ही पूंछा तो मारने के लिए खड़ी हो गई। कहती है मेरे आदमी की कमाई है, खाती हूँ; किसी के बाप की खाती हूँ क्या ? उसका आदमी है तो मेरा भी तो बेटा है, उसका १२ आने हक़ है तो मेरा ४ आने तो होगा ही ।”
पड़ोस की एक दूसरी बुढ़िया बोली-“राम राम ! यही पढ़ी-लिखी होशयार हैं। पढ़ी-लिखी हैं तो क्या हुआ अक़ल तो कौड़ी के बराबर नहीं है। तुमने भी नौ महीने पेट में रखा बहिन ! तुम्हारा तो सोलह आने हक़ है । बहू को, बेटा मां के लिए लौंडी बनाकर लाता है; वह तुम्हारे पैर दबाने और तुम्हारी सेवा करने के लिए हैं। हमारा नन्दन तो जब तक बहू मेरे पैर नहीं दबा लेती, उसे अपनी कोठरी के अन्दर ही नहीं आने देता।"
-"अपना ही माल खोटा हो तो परखने वाले का क्या-दोष, बहिन ! बेटा ही सपूत होता तो बहू आज मुझे, मारने दौड़ती।"
(३)
गंगाप्रसाद गाँव की प्रायमरी पाठशाला के दूसरे मास्टर की जगह के लिए उम्मीदवार थे। साढ़े सत्रह रुपए माहवार की जगह के लिए बिचारे दिनभर दौड़-धूप करते, इससे मिल, उससे मिल, न जाने किसकी-किसकी खुशामद करनी पड़ती थी; फिर भी नौकरी पाने की उन्हें बहुत कम उम्मीद थी। इधर वे कई मास से बेकार बैठे थे। भामा के पास कुछ जेवर थे जो हर माह गिरवी रखे जाते थे और किसी प्रकार काट-कसर करके घर का खर्च चलता था । भामा पैसों को दांत तले दबाकर खर्च करती । सास और पति को खिलाकर स्वयं आधे पेट ही खाकर पानी से ही पेट भरकर उठ जाती। कभी दाल का पानी ही पी लिया करती । कभी शाक उचलकर ही पेट भर लिया करती । रुपये पैसों की तंगी के कारण घर में प्रायः रोज ही इस प्रकार कलह मची रहती है।
जब गंगाप्रसाद जी दिन भर की दौड़-धूप के बाद थके- हारे घर लौटे तब शाम हो रही थी, आंगन में उनकी मां उदास बैठी थीं, बेटे को देखा तो नीची आँख कर ली, कुछ बोली नहीं । गंगाप्रसाद अपनी मां का बड़ा आदर करते थे। उनका बड़ा ख्याल रखते थे। जिस बात से उन्हें जरा भी कष्ट होता वह बात वे कभी न करते थे। मां को उदास देखकर वे मां के पास जाकर बैठ गये; प्यार से मां के गले में बाहें डाल दीं; पूछा-क्यों मां आज उदास क्यों है ? क्या कुछ तबियत खराब है ?”
-नहीं, अच्छी है।"
-"कुछ भी तो हुआ है; माँ तू उदास है ।”
अब मां जी से न रहा गया; फूट-फूट के रोने लगीं; बोलीं-“कुछ नहीं मैं आदमी-औरत में लड़ाई नहीं लगवाना चाहती; बस इतना ही कहती हूँ कि अब मैं इस घर में न रह सकुँगी; मेरे लिए अलग झोपड़ा बनवा दे वहीं पड़ी रहूँगी । जी में आवे तो खरच भी देना नहीं तो मांग के खा लूंगी ।”
–“क्यों मां ! क्या कुछ झगड़ा हुया है ? सच-सच कहना !"
-“आज ही क्या है ? यह तो तीसों दिन की बात है ! तेरी घर वाली ने मोहन से मिठाई मंगवाई; वह दोना भर मिठाई मेरे सामने लाया; मैं ज़रा पूछने गई तो कहती है, हाँ मंगवाती हूँ; खाती हूँ ! अपने आदमी की कमाई खाती हूँ; कुछ तुम्हारे बाप का तो नहीं खाती ? जब मैंने कहा कि तेरा अदमी है तो मेरा भी तो बेटा है, उसकी कमाई में मेरा भी हक़ है तो कहती है कि तुम्हारा हक़ जब था तब था, अब तो सब मेरा है। ज्यादः बोलोगी तो मार के घर से निकाल दूँगी। तो बाबा तेरी औरत है तू ही उसकी मार सह; मैं मांग के पेट भले ही भर लूँ; पर बहू के हाथ की मार न खाऊँगी ।"
गंगाप्रसाद अब न सह सके, बोले- “बहू तुझे मारेगी माँ! मैं ही न उसके हाथ-पैर तोड़ कर डाल दूंगा। कहते हुए वे हाथ की लकड़ी उठाकर बड़े गुस्से से भीतर गये । भामा को डाँटकर पूछा-क्या मंगाया था तुमने मोहन से ?
गंगाप्रसाद के इस प्रश्न के उत्तर में "कदम के फूल थे, भैया !” कहते हुए मोहन ने घर में प्रवेश किया तब तक भामा ने दोना उठाकर गंगप्रसाद के सामने रख दिया था। दोने में आठ, दस पीले-पीले गोल-गोल बेसन के लड्डुओं की तरह कदम्ब के फूलों को देखकर गंगाप्रसाद को हँसो आ गई।
मोहन ने दोने में से एक फूल उठाकर कहा-“कितना सुन्दर है यह फूल, भौजी” ! 

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रचनाएँ
बिखरे मोती - सुभद्रा कुमारी चौहान (कहानियों का संकलन)
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'बिखरे मोती' उनका पहला कहानी संग्रह है। इसमें भग्नावशेष, होली, पापीपेट, मंझलीरानी, परिवर्तन, दृष्टिकोण, कदम के फूल, किस्मत, मछुये की बेटी, एकादशी, आहुति, थाती, अमराई, अनुरोध, व ग्रामीणा कुल 15 कहानियां हैं! इन कहानियों की भाषा सरल बोलचाल की भाषा है! अधिकांश कहानियां नारी विमर्श पर केंद्रित हैं!
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भूमिका बिखरे मोती

3 मार्च 2022
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एक बार एक नये कहानी लेखक ने जिनकी एक-दो कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी थीं, मुझसे बड़े इतमीनान के साथ कहा- “मैं पहले समझता था कि कहानी लिखना बड़ा कठिन है, परन्तु अब मुझे मालूम हुआ कि यह तो बड़ा सरल है। अब त

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भग्नावशेष

3 मार्च 2022
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1 न मैं कवि था न लेखक, परन्तु मुझे कविताओं से प्रेम अवश्य था। क्यों था यह नहीं जानता, परन्तु प्रेम था, और खूब था। मैं प्रायः सभी कवियों की कविताओं को पढ़ा करता था, और जो मुझे अधिक रुचतीं, उनकी कटिंग्

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होली

3 मार्च 2022
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(1) "कल होली है।" "होगी।" "क्या तुम न मनाओगी?" "नहीं।" ''नहीं?'' ''न ।'' '''क्यों? '' ''क्या बताऊं क्यों?'' ''आखिर कुछ सुनूं भी तो ।'' ''सुनकर क्या करोगे? '' ''जो करते बनेगा ।'' ''तुमसे कु

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पापी पेट

3 मार्च 2022
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(1) आज सभा में लाठी चार्ज हुआ। प्रायः पांच हजार निहत्थे और शान्त मनुष्यों पर पुलिस के पचास जवान लोहबन्द लाठियाँ लिये हुए टूट पड़े। लोग अपनी जान बचाकर भागे; पर भागते-भागते भी प्रायः पाँच सौ आदमियों को

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(१) वे मैने कौन थे ? मैं क्या बताऊँ ? वैसे देखा जाय तो वे मेरे कोई भी न होते थे। होते भी तो कैसे ? मैं ब्राह्मण, वे क्षत्रिय; मैं स्त्री, वे पुरुष; फिर न तो रिश्तेदार हो सकते थे और न मित्र आह ! यह क्

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परिवर्तन

3 मार्च 2022
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(१) ठाकुर खेतसिंह, इस नाम को सुनते ही लोगों के मुँह पर घृणा और प्रतिहिंसा के भाव जागृत हो जाते थे । किन्तु उनके सामने किसी को उनके खिलाफ़ चूं करने की भी हिम्मत न पड़ती। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, किसी

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दृष्टिकोण

3 मार्च 2022
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(१) निर्मला विश्व प्रेम की उपासिका थी। संसार में सब के लिए उसके भाव समान थे। उसके हृदय में अपने पराये का भेद-भाव न था । स्वभाव से ही वह मिलनसार, सरल, हंसमुख और नेक थी । साधारण पढ़ी लिखी थी । अंगरेजी

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कदम्ब के फूल

3 मार्च 2022
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(१) “भौजी ! लो मैं लाया ।” “सच ले आए ! कहाँ मिले ?” । “अरे ! बड़ी मुश्किल से ला पाया, भौजी !” “तो मजदूरी ले लेना ।” “क्या दोगी ?” “तुम जो माँगो।” “पर मेरी मांगी हुई चीज़ मुझे दे भी सकोगी ?” “क

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क़िस्मत

3 मार्च 2022
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(१) "भौजी, तुम सदा सफेद धोती क्यों पहनती हो ?" "मैं क्या बताऊँ, मुन्नी”। “क्यों भौजी ! क्या तुम्हें अम्मा रंगीन धोती नहीं पहिनने देती?" "नहीं मुन्नी ! मेरी किस्मत ही नहीं पहनने देती, अम्मा भी क्या

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मछुए की बेटी

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चौधरी और चौधराइन के लाड़ प्यार ने तिन्नी को बड़ी ही स्वच्छन्द और उच्छृङ्खल बना दिया था। वह बड़ी निडर और कौतूहल-प्रिय थी। आधी, रात, पिछली पहर, जब तिन्नी की इच्छा होती वह नदी पर जाकर नाव खोलकर जल-विहार

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एकादशी

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(१) शहर भर में डाक्टर मिश्रा के मुक़ाबिले का कोई डाक्टर न था। उनकी प्रैकटिस खूब चढ़ी बढ़ी थी। यशस्वी हाथ के साथ ही साथ वे बड़े विनोद प्रिय, मिलनसार और उदार भी थे। उनकी प्रसन्न मुख और उनकी उत्साहजनक ब

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आहुति

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(१) क्यों रोती हूँ। इसे नाहक पूँछ कर जले पर नमक न छिड़को ! जरा ठहरो ! जी भर कर रो भी तो लेने दो, न जाने कितने दिनों के बाद आज मुझे खुलकर रोने का अवसर मिला है। मुझे रोने में सुख, मिलता है; शान्ति मिलत

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3 मार्च 2022
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[१] उस अमराई में सावन के लगते ही झूला पड़ जाता और विजयादशमी तक पड़ा रहता। शाम-सुबह तो बालक-बालिकाएँ और रात में अधिकतर युवतियाँ उस झूले की शोभा बढ़ातीं। यह उन दिनों की बात है जब सत्याग्रह आन्दोलन अपने

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(१) "कल रात को मैं जा रहा हूँ ।” "जी नहीं, अभी आप न जा सकेंगे” आग्रह, अनुरोध और आदेश के स्वर में वीणा ने कहा। निरंजन के ओठों पर हल्की मुस्कुराहट खेल गई। फिर बिना कुछ कहे ही उन्होंने अपने जेब से एक

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ग्रामीणा

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पंडित रामधन तिवारी को परमात्मा ने बहुत धन-संपत्ति दी थी, किंतु संतान के बिना उनका घर सूना था। धन धान्य से भरा पूरा घर उन्हें जंगल की तरह जान पड़ता। संतान की लालसा में उन्होंने न जानें कितने जप-तप एवं

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