एक बार एक नये कहानी लेखक ने जिनकी एक-दो कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी थीं, मुझसे बड़े इतमीनान के साथ कहा- “मैं पहले समझता था कि कहानी लिखना बड़ा कठिन है, परन्तु अब मुझे मालूम हुआ कि यह तो बड़ा सरल है। अब तो मैं नित्य एक कहानी लिख सकता हूँ।” उनकी यह धारणा, मुझे लिखते हुए कुछ दु.ख होता है, बहुत शीघ्र ही बदल गई।
नया कहानी लेखक समझता है कि केवल कथानक (प्लाट) रच देने से ही कहानी बन जाती है। भाषा, भाव, चरित्र-चित्रण इत्यादि से उसे कोई सरोकार नहीं रहता। यदि व्याकरण के हिसाब से भाषा ठीक है तो वह सर्वोत्तम भाषा है, कहानी में भाव अपने आप आ ही जाते हैं- कोई भी लेखक उनका आना रोक नहीं सकता, और चरित्र-चित्रण के लिए बदमाश, पाजी, धूर्त, सज्जन, दयावान् इत्यादि शब्द मौजूद ही है- इन्हीं में से कोई एक शब्द लिख देने से चरित्र-चित्रण से भी सरलता पूर्वक छुट्टी मिल जाती है। परन्तु दो-चार कहानियाँ लिखने के पश्चात उसकी गाड़ी सबसे पहले उसी मार्ग पर अटकती है जिसे वह सबसे सरल समझ रहा था- अर्थात प्लाट। जिन दो-चार प्लाटों के बल पर उसने अपने लिए कहानी लेखन विषय निश्चित किया था जब वे समाप्त हो जाते हैं, तब उसे प्लाट ढूंढें नही मिलता। उस समय उसे पता लगता है कि कहानी-लेखन उतना सरल नहीं है जितना उसने समझ रखा था। परन्तु एक भ्रम दूर होते ही दूसरा भ्रम पैदा हो जाता है। कहानी-लेखन बड़ा सरल है-यह भ्रम तो दूर हो गया परन्तु उसके साथ ही यह भ्रम आ घुसा कि अभ्यस्त लेखक या तो प्लाट कहीं से चुराते है या फिर उनके कान में ईश्वर प्लाट फूँक जाता है। पहले तो नया लेखक इस बात की प्रतीक्षा करता है कि कदाचित उसके कान में भी ईश्वर प्लाट फूँक जाएगा, परन्तु जब उसे इस ओर से निराशा होती है तब वह दूसरी युक्ति ग्रहण करता है। अन्य भाषा के पत्रों से प्लाट चुरा कर उसे तोड़-मरोड़ कर कहानी तैयार कर दी । बहुत से तो हिन्दी में ही निकली हुई कहानियों का रूप बदलकर उन पर अपना अधिकार जमा लेते है।
नया लेखक यह बात नहीं समझ सकता कि अभ्यस्त लेखक प्लाट गढ़ते है, उराकी रचना करते हैं। हाँ, केवल विषय और भाव ऐसी चीजें हैं जिन्हें कोई भी लेखक अपनी बपौती नहीं कह सकता और किसी लेखक को उन्हें गढने का कष्ट नहीं उठाना पडता । “सच बोलना बहुत अच्छा है, मनुष्य को सदैव सच बोलना चाहिए।” इस विपय पर न जाने कितने प्लाट गढ़े जा चुके हैं और न जाने अभी कितने गढ़े जा सकते है। प्रेम, घृणा, सज्जनता, दयालुता, परोपकार इत्यादि विषयों पर हजारों प्लाट बन चुके हैं और अभी हजारों बन सकते हैं। परन्तु वे सब प्लाट अच्छे नहीं हो सकते। प्लाट वही अच्छा होगा जिसमें कुछ चमत्कार होगा, कुछ नवीनता होगी। जिसमें प्रतिपादित विषय पर किसी ऐसे नये पहलू से प्रकाश डाला जाए जिससे कि वह विषय अधिक आकर्षक, अधिक मनोरम तथा अधिक प्रभावोत्पादक हो जाय। लेखक की प्रतिभा तथा लेखक की कला इसी पहलू के ढूंढ निकालने पर निर्भर है।
अब रहा चरित्र-चित्रण सो उसमें भी प्रतिभाशाली लखक नवीनता तथा अनोखापन ला सकता है। नित्य जो चरित्र देखने को मिलते हैं उन चरित्रों से भिन्न कोई ऐसा अनोखा चरित्र उत्पन्न करना जिसे देखकर विज्ञ पाठक फड़क उठे- उनके हृदय में यह बात पैदा हो कि मनुष्य-चरित्र के संबंध में उन्हें कोई नई बात मालूम हुई यही चरित्र-चित्रण की कला है।
खेद है कि अधिकांश नये लेखकों में उपर्युक्त कला का अभाव मिलता है। इसका मुख्य कारण यही है कि वे न तो इसका ज्ञान प्राप्त करने के लिए यथेष्ट अध्ययन ही करते हैं और न शिक्षा ही ग्रहण करते हैं। परिणाम यह होता है कि उनको सफलता नहीं मिलती और वे बरसाती कीड़ों की भाँति थोड़े दिनों तक इस क्षेत्र में फुदक कर सदैव के लिए विलीन हो जाते हैं।
इस संग्रह की लेखिका श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान से हिन्दी-संसार भली भाँति परिचित है। इनकी भावमयी कविताओं का रसास्वादन हिन्दी-जगत बहुत दिनों से कर रहा है। परन्तु कहानी-क्षेत्र में इन्हें, इस संग्रह द्वारा, कदाचित् पहले ही पहल देखेगा। परन्तु उसे हताश नहीं होना पड़ेगा; क्योंकि श्रीमती जी की कहानियों में कला है। प्लाट्स में कुछ न कुछ अनोखापन है और चरित्रों में भी कुछ विचित्रता है। उदाहरणार्थ 'ग्रामीणा' कहानी का प्लाट साधारण है परन्तु उसमें “सोना” के अनोखे चरित्र ने जान डाल दी है। सोना एक ऐसी कन्या है, जो देहात के खुले वायुमण्डल में, पली है। उसका बाल्यकाल स्वतंत्रता की गोद में बीता है। नगर के प्रपंचों से वह अनभिज्ञ है। दुर्भाग्य से उसका विवाह शहर में होता है। वह नगर में आकर भी अपने उसी स्वतंत्रतापूर्ण देहाती स्वभाव के कारण पर्दे का अधिक ध्यान नहीं रखती। इसका परिणाम यह होता है कि उसके संबंध में लोगों में ऐसी ग़लतफ़हमी फैलती है जो अन्त में उस बेचारी के प्राण ही लेकर छोड़ती है। सोना सुन्दर है, पवित्र है, निष्कपट है, निष्कलंक है, परन्तु फिर भी उसे आत्म-हत्या करने की आवश्यकता पड़ती है। क्यों? इसलिए कि उसका स्वभाव तथा रहन-सहन शहर में रहनेवालों से मेल नहीं खाता। वह अपने स्वतंत्रताप्रिय स्वभाव को शहरवालों के अनुकूल नहीं बना सकी, यही इस चरित्र में अनोखापन है।
इसी प्रकार श्रीमती जी की प्रत्येक कहानी में पाठक कुछ न कुछ विचित्रता, नवीनता तथा अनोखापन पाएंगे। कहानियों की भाषा बहुत सरल बोलचाल की भाषा है। इस संबंध में केवल इतना ही कहना यथेष्ट होगा कि एक विख्यात बहुभाषा-विज्ञ का कथन है कि-
"यदि किसी देश की भाषा सीखना चाहते हो तो उसे स्त्रियों से सीखो।"
श्रीमती जी की कहानियों में उनके कवि-हृदय की झलक भी कहीं-कहीं स्पष्ट देखने को मिल जाती है, जिसके कारण कहानियों का सौन्दर्य और अधिक बढ़ गया है।
मुझे पूर्ण आशा है कि हिन्दी-संसार इन कहानियों का आदर करके श्रीमती जी का उत्साह बढ़ायेगा। क्योंकि हिन्दी-साहित्य भविष्य में भी श्रीमती जी की रचनाओं से गौरान्वित होने की आशा रखता है।
बंगाली मोहाल
कानपुर
18 सितम्बर 1932
विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक'
विनीत निवेदन
मैं ये "बिखरे मोती" आज पाठकों के सामने उपस्थित करती हूँ; ये सब एक ही सीप से नहीं निकले हैं। रूढ़ियों और सामाजिक बन्धनों की शिलाओं पर अनेक निरपराध आत्माएँ प्रतिदिन ही चूर चूर हो रही हैं। उनके हृदयबिन्दु जहाँ-तहाँ मोतियों के समान बिखरे पड़े हैं। मैंने तो उन्हें केवल बटोरने का ही प्रयत्न किया है। मेरे इस प्रयत्न में कला का लोभ है और अन्याय के प्रति क्षोभ भी। सभी मानवों के हृदय एक से हैं। वे पीड़ा से दुःखित, अत्याचार से रुष्ट और करुणा से द्रवित होते हैं। दुःख, रोष, और करुणा, किसके हृदय में नहीं हैं? इसीलिए ये कहानियाँ मेरी न होने पर भी मेरी हैं, आपकी न होने पर भी आपकी और किसी विशेष की न होने पर भी सबकी हैं। समाज और गृहस्थी के भीतर जो घात, प्रतिघात निरंतर होते रहते हैं उनकी यह प्रतिध्वनियाँ मात्र हैं; उन्हें आपने सुना होगा। मैंने कोई नई बात नहीं लिखी है; केवल उन प्रतिध्वनियों को अपने भावुक हृदय की तंत्री के साथ मिलाकर ताल स्वर में बैठाने का ही प्रयत्न किया है।
हृदय के टूटने पर आंसू निकलते हैं, जैसे सीप के फूटने पर मोती। हृदय जानता है कि उसने स्वयं पिघलकर उन आंसुओं को ढाला है। अतः वे सच्चे हैं। किन्तु उनका मूल्य तो कोई प्रेमी ही बतला सकता है। उसी प्रकार सीप केवल इतना जानती है कि उसका मोती खरा है; वह नहीं जानती कि वह मूल्यहीन है अथवा बहुमूल्य। उसका मूल्य तो रत्नपारखी ही बता सकता है। अतएव इन 'बिखरे मोतियों' का मूल्य कलाविद् पाठकों के ही निर्णय पर निर्भर है।
मुझे किसी के सामने इन्हें उपस्थित करने में संकाच ही होता था परन्तु श्रद्धेय श्री० पदुमलाल पुन्नालाल जी बख्शी के आग्रह और प्रेरणा ने मुझे प्रोत्साहन देकर इन्हें प्रकाशित करा ही दिया, जिसके लिए हृदय से तो मैं उनका आभार मानती हैं किन्तु साथ ही डरती भी हूँ कि कहीं मेरा यह प्रयत्न हास्यास्पद ही न सिद्ध हो।
जबलपुर
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी
संवत 1989
सुभद्राकुमारी चौहान