इन दिनों गुमसुम सी है कुछ चहचहाटें , बेरंग सी लगती है ये धूप जिनमें कभी इंद्रधनुष के सातों रंग नृत्यरत हो उठते थे । दिन का दोलन जो दरियाई फितरत रखता था पहाड़ सा सध गया हो जैसे । कुछ आवाज़ें जिनमें जीवन गुंजायमान सा हुआ करता था इन दिनों बेआवाज़ सा हो चला है । ये मखमली परिंदे जो पैगंबरों की मानिंद कुदरत की खबरों को सुनाने आ जाते थे । इन दिनों जैसे बदहवास से नजर आते हैं । कुछ देर तो टटोलते हैं वो मुझे और मेरे आस पास के माहौल को , फिर उनपे भी घिर जाती है वो मायूसी जिससे उनका राब्ता पहले कभी ना हुआ हो जैसे । मेरे मूक निवेदन को स्वीकार वो उड़ जाते हैं किसी और सुनहले छत और आंगन की ओर मानो जैसे वो भी मर्यादित हो दिन और रात , उजाले और अंधेरे के चक्र को निर्वाहित करने के लिए ~~
आजकल ना उन राहों पर काटें से उग आए हैं जिनपर चलने के पक्के वादे तुमने मुझसे लिए थे । ये काटें जाने कैसे उग आए , शायद तुम्हारे एहसासों की नमी में कोई कमी आ गयी है शायद या फिर , या फिर मैंने खुद बो लिए हो ये काटें अपने अचेतन मन के निर्देशन में । पर अक्सर उलझा लेते है ये काटें मुझे , इनकी चुभन से अब वो तकलीफ तो नही महसूस होती पर हां बेचैनी कुछ ज्यादा सी होने लगी है । धड़कनें अब उस तरह से उन दिनों के मानिंद तो नही बढ़ती पर नियमतः भी नही रहती है । सासें वैसी ही है दुरुस्त ,गहरी और गर्म बस अब इन्हें लेना पड़ता है सायास मानो ।
तुम्हारा दूर होना कुदरती इनायतों के दूर होने जैसा रहा , और आदतन मैंने कभी आवाज़ नही दी दूर जाती किसी भी चीज को । रसायन शास्त्र का वो अध्याय जैसे आत्मसात हो गया था मेरे वजूद में कि इलेक्ट्रॉन परमाणु की पात्रता के आधार पर ही उसके कक्ष में गतिमान होते हैं । अतः इलेक्ट्रॉन को सायास अंतस्थ रखने की सायास कोशिश हमेशा परमाणु को असंयत ही रखेगी ।
तुमसे मिले अधूरेपन ने मुझे अनगिनत जगहों पर मुकम्मल किया । शायद इसीलिए तुमसे मिले इस अधूरेपन को भरने की बात से कतराता रहा हूँ । परमाणु का केंद्र जिस मटेरियल से निर्मित है उसमें किया गया अभियांत्रिक परिवर्तन परमाणु के कुदरती गुणों से तो दूर ही कर देगा ना , क्या वो यंत्रवत नही हो जाएगा अन्य परमाणुओं के सदृश । नहीं मुझे मेरी सत्ता प्यारी हैं , वो शहर दिलरुबा लगती है जिसे निर्मित किया गया है तुम्हारे एहसासों के गारे माटी से । उसकी शीतल बयार में मुझे ईश्वरीय होने का सुख मिलता है तुम्हारे सानिध्य में । एक ऐसा शहर जहां चाहकर भी तुम मुझसे दूर नही हो सकती । जहां चाहकर भी समय या उम्र के बहाने बनाकर मैं खुद को आज़ाद नही कर सकता । ये शहर बेहद खूबसूरत है , जहां सब कुछ अपने हिसाब से चलता है जहां दूर दूर तक हम दोनों की सल्तनत है । इस शहर के मंदिर , मस्जिद ,गुरुद्वारे सब एक ही आंगन में खुलते हैं , और जहां परवरिश की जाती है इंसानियत की बुनियाद पर । मुझे यकीन है कि हमारे इस शहर की कुदरती हवा से ओढ़ लिए गए तमाम दुनियावी मर्ज़ों का इलाज हो सकेगा । इंसानों की और सुंदर बस्तियां बसेंगी । प्रेम के इस धार्मिक नगर में किसी भी सामाजिक बुराई के टीकाकारण की आवश्यकता नही होगी । बस बतला रहा हूँ तुम्हे •••••••