अरे!सत्य प्रिय ,, क्या बात है ,आज बेटियाँ कहाँ हैं ?दुकान पर दिख न रहीं ।
सत्य प्रिय उठते हुये दुकान में आता है और कहता है -"वो भव्या तो कुछ सामान लेने गयी है और नव्या अंदर मेरे लिये दलिया बना रही है ।धीरे बोलो न सुन लेगी ।"
अच्छा!अच्छा!वैसे तुमने दोनों बेटियों को अपना काम बखूबी सिखा दिया है ।टेलीविजन हो या वाशिंग मशीन,रेडियो हो या ,मोबाइल,सब सही करना दोनों को आता है ।
अरे मैंने उन्हें कुछ न सिखाया ,वो तो देखते ही देखते सीख गयीं ।अब मैं तो मरीज हूँ ,तो इन दोनों ने दुकान सँभाल ली और देखो दुकान के साथ बरामदे में मेरी चारपाई डाल दी ,इसी पर पडा़ रहता हूँ और ये दोनो दुकान देखतीं ।यही रोजी-रोटी का साधन है अपना ।जितना मालिक दे देते उतने में दाल -रो रो....सत्य प्रिय के खाँसी आने लगती जिससे वो अपनी बात पूरी न कर पाता है और खाँसी की आवाज सुनकर अंदर से नव्या आती है और दुकान पर पिता को खडे़ देख व रेडियो सही कराने आये व्यक्ति को देख चिल्ला कर कहती है --"ऐऐऐऐ चिरकुट !तेरा न भेजा निकाल कर मैं हाथ में पकडा़ देगी ,बापू को क्यों उठाया?पता है न ,तेरे को उसकी तबीयत न सही है !!मेरे को आवाज न लगा सकता था ?"
आवाज सुनके सत्य प्रिय अपनी चारपाई पर लेट जाता है जाकर और सिरहाने रखा पानी पी लेता तो खाँसी रुक जाती है ।
"अरे बिटिया नव्या !मैंने तो तुम दोनों बहनों को ही पूछा था कि कहाँ हैं बिटिया ?दुकान पर दिख न रहीं ,अब यही उठकर मुझसे बात करने लगे तो मैं क्या करूँ?"
और ये क्या ?फिर रेडियो लेकर आ गये ।अभी आज तीसरी बार सही कर रही ।नव्या रेडियो खोलकर सही करते हुये बोली -"तुम इसको हटा कर नया क्यों न ले लेते ?अपुन तो है ही सही करने को मगर जितना पैसा तू इसको सही करने में लगाता ,उतने में और जोड़कर नया ले ले ना !ये बहुत पुराना हो गया ।"
"बिटिया ,ये मुझे बहुत प्रिय है ,और पुराने तो माँ -बाप भी हो जाते जब बुजुर्ग हो जाते तो क्या उनको भी हटा कर नया ले लूँ ?ये नहीं होता न !"
"ऐ तेरी एक बात मेरे भेजे में घुसकर बहुत अच्छी लगती ,वो ये न कि तू ज्ञान बहुत अच्छा देता है ,कसम से"कहकर वो अपने गले को उंगलियों में चुटकी जैसा दबाती है ।
"ये ले ,सही हो गया तेरा रेडियो ।"
"कितने हुये ?"
"अबे!तीसरी बार बनवा रहा तो दाम तो पता ही हैं ,उतने ही दे ना,क्या सुबह सुबह मुंडी खराब करता है ।"
इसीलिये तो तुम्हारी दुकान पर आता हूँ ।तुम दोनो जितने उचित हैं उतने ही दाम लेती हो ,बाकियों की तरह लूटती नहीं हो ,इसीलिये सबको पीट कर रख दिया है ।तुम्हारे बाबू की तरह तुम लोग भी बहुत इमानदारी रखते हो ।पूरे कानपुर में साख है तुम्हारी दुकान की ।
तेरा हो गया न !अब जा ना!कहकर नव्या हाथ जोड़ती और वह चला जाता है ।तब नव्या से बरामदे में लेटा सत्यप्रिय कहता है -"नव्या मेरा बेटा ,तुझे मैं और भव्या कितनी बार बताये कि ग्राहक भगवान होता है ,उससे ऐसे बात न की जाती ।"
"ऐ बापू ,तू ना मेरे को कसम से वो वाला बापू लगता --दे दी ,हमें आजादी के बिना,खड़क बिना ढा़ल .......नव्या गाते हुये कहती -उसी के माफिक तू भी है कसम से कह रही अपुन ..कहकर वो फिर अपना गला चुटकी जैसा दबाती है तब तक सामने से भव्या आ गयी होती है ,जिसके हाथ में झोला है ,जिससे प्रदर्शित हो रहा कि वो साग,सब्जी या राशन कुछ लेकर आई है ।
वह दुकान से होते हुये अपने बरामदे में आती हुयी अंदर झोला रखने चली जाती है ।
फिर आती बरामदे में तो सत्य प्रिय कहता है उससे -"आ गयी भव्या !ये तेरी बहन ,समझा इसको कि ग्राहक से कैसे बात करते हैं ।"
भव्या कहती है -"मैं क्या समझाऊं?आप ही ने तो मेरा बेटा,मेरा बेटा कहकर इसे ऐसा बना दिया ।देखो जरा लड़कों जैसे बाल,पैंट,बुशर्ट ,,कहीं से लगता ये लड़की है ,पर जैसी भी है मेरी जान है मेरी बहन ।"
"वो तो जानता हूँ तुम दोनो की जान एक दूसरे में बसती है।"
"नव्या ,बापू के लिये दलिया बना रही थी तू ?बना ली क्या?"
"हाँ मैं अभी लाती " कहकर नव्या अंदर दलिया लेने चली जाती है ,दलिया लाकर भव्या को देती है ।
"लो ,बापू दलिया खा लो,फिर दवा ले लो ,मैं और नव्या दुकान देख रहे ।"भव्या कहती है और सत्य प्रिय दलिया खाने लगता है ।
" नव्या तूने तो कुछ खाया न होगा ,रुक दलिया लाती हूँ ,हम दोनों भी यहीं खा लेते हैं "कहकर वो अंदर दलिया लेने चली जाती है ।
सत्य प्रिय दलिया खा चुके होते तो उन्हें दवाई देने के लिये भव्या शीशी उठाती तो देखती उसमें थोडी़ दवा बची ।
ये दवा भी लानी है ,आज तो पैसे न बचे न ले आती ,अब जल्दी ही दवा लानी होगी ,,बुदबुदाते हुये भव्या सत्य प्रिय को दवा दे देती है फिर दोनो बहने दलिया खाने लगतीं ।
दलिया खाते हुये नव्या कुछ सोचने लगती है ..........
शेष अगले भाग में ।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'