जी रही हूँ कुदरत की तस्वीर निराली,
यूँ निकली है आज भींगी हुई भोर,
गूंज रहा है पानी का सुरीला शोर,
कभी गूँजती हैं झम-झम की आवाजें,
कभी गुनगुनाती छज्जे की टप-टप बूंदें,
झुलसी हुई मिट्टी बुझा रही प्यास,
पत्ते मोतियों से सजकर दिख रहे खास,
भीनी खुशबु समां रही हर साँस के संग,
आखों पे ही छा गया है चाँदी जैसा रंग,
चिंता, कुंठा सब खो गयी इस सुरीले शोर में,