नाराज हूँ मैं वक्त से
वक्त वो देता नहीं क्यों
ढेरों वजह ढूंढ़कर
मशरूफ रहता यूँ
ऐ वक्त कभी तो
मेरे छज्जे पे आ रे
किसी शाम की चाय
मेरे संग पी के जा रे
मन में जन्मे
शब्दों को बटोरूँ
फुरसत से बैठूँ
और उनको जोड़ू
अगर जो मिलती फुरसत
वक्त तुमपे ही लिखती कविता
पर कितनी ही लगा लूँ जुगत
वक्त ही नहीं मिलता।