पिछले बरस सावन में
कांवर ले नंगे पांव
मैं देवस्थान,
देवघर गई थी |
एक बिल्कुल नया-सा
पहलू मुझे समझ आया |
कांवर लेकर
देवघर तक जाने
का सफ़र मैंने
बिलकुल जीवन-सा पाया |
दोनों ही सफ़र में
ईश्वर तक पहुँचने से पहले
थकने की इजाज़त नहीं |
कभी तो चिलचिलाती
धूप होती है ऐसी कि
धरती पर पांव रखते ही
जलने लगते हैं |
कभी पेड़ की
ठंडी छाँव होती है |
तो कभी बारिश की
फ़ुहार होती है |
कभी सफर मुश्किल-सा
मालूम पड़ता है |
तो कभी सफ़र बहुत ही
आसान लगता है |
इस सफ़र में हम
ठहर तो सकते हैं |
पर रुक जाने की
इजाज़त नहीं |
बहुत से चेहरे
कभी तो हमारे साथ
चलते हैं |
और कभी
पीछे छूट जाते हैं |
और कुछ चेहरे सफ़र
के आख़िरी पड़ाव तक
हमारे साथ जाते हैं |
पर ईश्वर तक
हमारे मन को हमारे
पांव ही पहुंचाते हैं |
जब सफ़र में
पांव थकने लगते हैं |
तब ईश्वर के नाम
मात्र से ही
ऊर्जा का संचार होता है |
बोल-बम के नारे से
पांव को बल मिलता है |
और ईश्वर तक पहुँचने को
मन प्रबल होता है |
जीवन के सफ़र में
जब कभी हम
हताश होते हैं |
तात्कालिक परेशानियों से
निराश होते हैं |
ईश्वर के नाम मात्र से ही
मन सबल होता है |
फिर हर-एक
समस्या का
हल होता है |
दोनों ही सफर में
हम ठहर सकते हैं |
फिर से हम
सम्हल सकते हैं |
पर ईश्वर तक
पहुंचने से पहले
थक जाने की
और रुक जाने की
इजाज़त नहीं |
- तीषु सिंह ‘तृष्णा’