रात लगभग ग्यारह घड़ी के जा चुकी है। भूतनाथ, गुलाबसिंह और प्रभाकर सिंह उत्कंठा के साथ उस (अगस्तमुनि की) मूर्ति की तरफ देख रहे हैं। एक आले पर मोमबत्ती जल रही है जिसकी रोशनी से उस मंदिर के अन्दर की सभी चीजें दिखाई दे रही हैं। भूतनाथ और गुलाबसिंह का कलेजा उछल रहा है कि देखें अब यह मूर्ति क्या बोलती है।
यकायक कुछ गाने की आवाज आई, ऐसा मालूम हुआ मानो मूर्ति गा रही है, सब कोई बड़े गौर से सुनने लगे :-
।।बिरह।।
सबहि दिन नाहिं बराबर जात।
कबहूँ कला बला पुनि कबहूँ कबहूँ करि पछितात।
कबहूँ राजा रंक पुनि कबहुँ ससि उगन दिखलात।।
पै करनी अपनी सब चाखैं, फल बोये को खात।
अनरथ करम छिपे नहिं कबहूँ, अन्त सबै खुल जात।।
सबहि दिन नाहिं बराबर जात।
इसके बाद मूर्ति इस तरह बोलने लगी-
“आहा! आज मैं अपने सामने किस-किस को बैठा देख रहा हूँ? महात्मा प्रभाकर सिंह! धर्मात्मा गुलाबसिंह! मैं अभी धर्मात्मा कैसे कहूँ, क्या संभव है कि भविष्य में भी यह धर्मात्मा बना रहेगा?
“खैर जो कुछ होगा देखा जाएगा। हाँ, यह तीसरा आदमी मेरे सामने कौन था! वही गदाधरसिंह जिसने एकदम से अपनी काया पलट कर दी और एक सुन्दर नाम को छोड़ के भूतनाथ नाम से प्रसिद्ध होना पसन्द किया! आह, दुनिया में किसी पर विश्वास और भरोसा न करना चाहिए और न किसी की मित्रता पर किसी को घमंड करना चाहिए। क्या दयाराम के स्वप्न में भी इस बात का गुमान रहा होगा कि मैं अपने दोस्त गदाधरसिंह के हाथ से मारा जाऊँगा, दोस्त ही नहीं बल्कि गुलाम और ऐयार गदाधरसिंह!”
मूर्ति की यह बात सुनकर भूतनाथ का कलेजा दहल उठा और गुलाबसिंह तथा प्रभाकर सिंह आश्चर्य के साथ भूतनाथ का मुँह देखने लगे। मूर्ति ने फिर इस तरह कहना शुरू किया-
“अफसोस! अपनी चूक का प्रायश्चित करना उचित न था कि ढंग बदल कर पुन: पाप में लिप्त होना। भूतनाथ, क्या तुम समझते हो कि इस दुष्कर्म का अच्छा फल पाओगे? क्या तुम समझते हो कि गुप्त रहकर पृथ्वी का आनन्द लूटोगे? क्या तुम समझते हो कि बेईमान दारोगा से मिलकर स्वर्ग की सम्पत्ति लूटोगे और मायारानी की बदौलत कोई अनमोल पदार्थ बन जाओगे? नहीं-नहीं, कदापि नहीं! गदाधरसिंह, तुम्हारी किस्मत में दुःख भोगना बदा है अस्तु भोगो, जो जी में आवे करो मगर ऐ गुलाबसिंह, तुम ऐसे दुष्ट का साथ क्यों दिया चाहते हो जो बिना कदम लगाए आसमान पर चढ़ जाने का हौंसला करता है, खुद गिरेगा और तुम्हें भी गिरावेगा, और ऐ प्रभाकर सिंह, तुम अब अपनी आँखों के आँसू पोंछ डालो, इंदुमति को बिलकुल भूल जाओ, अपने कातर हृदय को ढाँढस देकर वीरता का स्मरण करो, दुनिया में कुछ नाम पैदा करो। यदि तुम धर्म-पथ पर दृढ़ता के साथ चलोगे तो मैं बराबर तुम्हारी सहायता करता रहूँगा। मैं तुम्हें सलाह देता हूँ कि तुम अवश्य उस पथ का अवलंबन करो जो मैं तुमसे उस दिन कह चुका हूँ, खबरदार, अपने भेद के मालिक आप बने रहो और किसी दूसरे को उसमें हिस्सेदार मत बनाओ। क्या तुम्हें मुझसे और कुछ पूछना है?”
इतना कहकर मूर्ति चुप हो गई और प्रभाकर सिंह ने उससे यह सवाल किया:
प्रभाकर सिंह : मुझे यह पूछना है कि मैं किसी को अपना साथी बनाऊँ या न बनाऊँ?
मूर्ति : बनाओ और अवश्य बनाओ। पहिली बरसात के दिन एक आदमी से तुम्हारी मुलाकात होगी, उसे तुम अपना साथी बनाओगे तो शुभ होगा। अच्छा और कुछ पूछोगे?”
भूतनाथ : अब मैं कुछ पूछूँगा।
मूर्ति : पूछो क्या पूछते हो?
भूतनाथ : पहिले यह बताओ कि अब तुम किस दिन और किस समय बोलोगे?
मूर्ति : यदि तुम्हारी नीयत खराब न हुई और तुमने कोई उत्पात न मचाया तो इसी अमावस वाले दिन सोलह घड़ी रात बीत जाने के बाद हम पुन: बोलेंगे।
गुलाबसिंह: हमें भी कुछ पूछना है।
मूर्ति : तुम्हारी बातों का जवाब आज नहीं मिल सकता, हाँ यदि तुम चाहो तो आज के अट्ठारहवें दिन इसी समय यहाँ आ सकते हो परन्तु अकेले।
गुलाबसिंह : अच्छा तो अब यह बताइए कि हम भूतनाथ के मेहमान बने रहें या…
मूर्ति : नहीं, अगर अपनी भलाई चाहते हो तो दो पहर के अन्दर भूतनाथ का साथ छोड़ दो और प्रभाकर सिंह की आज्ञानुसार काम करो। बस अब कुछ मत पूछो।
इसके बाद मूर्ति ने बोलना बंद कर दिया। भूतनाथ, गुलाबसिंह और प्रभाकर सिंह ने कई तरह के सवाल किए मगर मूर्ति ने कुछ जवाब न दिया अस्तु तीनों आदमी मंदिर के बाहर निकले और सभा-मंडप में बैठकर यों बातचीत करने लगे :-
गुलाबसिंह : क्यों भूतनाथ, यह तो हमें एक नई बात मालूम हुई है। मैं स्वप्न में भी नहीं जान सकता था कि दयाराम जी को तुमने मारा होगा! अफसोस!!
भूतनाथ : गुलाबसिंह, आश्चर्य की बात है कि तुम इतने बड़े होशियार होकर इस पत्थर की मूर्ति की बातों में फँस गए और जो कुछ उसने कहा उसे सच समझने लगे! इतना तक नहीं विचारा कि यह असंभव बात वास्तव में क्या है? निःसन्देह यह धोखे की टट्टी है और इसमें कोई अनूठा रहस्य है बल्कि यों कहना चाहिए कि यह कोई तिलिस्म है और इसका परिचालक (इस समय जो भी हो) जरूर हमारा दुश्मन है।
गुलाबसिंह : नहीं-नहीं भूतनाथ, अब तुम हमें धोखे में डालने की कोशिश मत करो और न अब हम लोग तुम्हारी बातों पर विश्वास ही कर सकते हैं। ऐसी आश्चर्यमय और अनूठी घटना का प्रभाव जैसा हम लोगों के ऊपर पड़ा उसे हमीं लोग जान सकते हैं।
भूतनाथ : खैर, तुम जानो, जो जी में आये करो और जहाँ चाहो चले जाओ, मैं तुम्हें अपने पास रहने के लिए जोर नहीं देता, मगर तुम दोस्त हो अस्तु निश्चिन्त रहो, मैं तुम्हें किसी तरह की तकलीफ न दूंगा।
इसके बाद इन तीनों में किसी तरह की बातचीत न हुई, गुलाबसिंह और प्रभाकर सिंह पूरब की तरफ रवाना हुए और भूतनाथ ने पश्चिम की तरफ का रास्ता लिया।