बेचारी इंदुमति बड़े ही संकट में पड़ गई है। प्रभाकर सिंह का इस तरह यकायक गायब हो जाना उसके लिए बड़ा ही दुःखदायी हुआ इस समय उसके आगे दुनिया अंधकार हो रही है। उसे कहीं भी किसी तरह का सहारा नहीं सूझता। उसकी समझ में कुछ भी नहीं आता कि अब उसका भविष्य कैसा होगा। उसे न तो तनोबदन की सुध है और न नहाने-धोने की फिक्र, वह सिर झुकाए अपने प्यारे पति की चिंता में डूबी हुई है। गुलाबसिंह उसके पास बैठे हुए तरह-तरह की बातों से उसे संतोष दिलाना चाहते हैं मगर किसी तरह भी उसके चित्त को शान्ति नहीं होती और वह अपने मन की दो-चार बातें कह कर चुप हो जाती है! हाँ जब-जब उसके कान में ये शब्द पड़ जाते हैं कि ‘भूतनाथ का उद्योग कदापि वृथा नहीं हो सकता, वह जरूर प्रभाकर सिंह को खोज निकालेंगे और यह अपने साथ लेकर ही आवेंगे’ तब-तब वह चौंक पड़ती है। आशा के फेर में पड़ कर उसका ध्यान सुरंग के मुहाने की तरफ जा पड़ता है और कुछ देर के लिए उधर की टकटकी बँध जाती है।
इस बीच में इंदु ने कई दफे गुलाबसिंह से कहा, “तुम मुझे साथ लेकर इस सुरंग के बाहर निकलो, मैं खुद मर्दाना भेष बनाकर उसका पता लगाऊँगी।” मगर गुलाबसिंह ने ऐसा करना स्वीकार न किया जिससे उसका चित्त और भी दुखी हो गया और उसने रोते ही कलपते बची हुई रात और अगला दिन बिता दिया। अन्त में दिन बीत जाने पर संध्या के समय जब सूर्य अस्त हो रहे थे लाचार होकर गुलाबसिंह ने इंदु से वादा किया कि अच्छा अगर कल तक भूतनाथ लौटकर न आ जाएँगे तो मैं तुम्हें साथ लेकर सुरंग के बाहर निकल चलूँगा और फिर जैसा तुम कहोगी वैसा ही करूँगा।
गुलाबसिंह के इस वादे से इंदु को थोड़ी-सी ढाढस मिल गई और उसने साहस करके अपने को सम्हाला। इसके बाद गुलाबसिंह से बोली कि ‘इस समय तो मैं स्नान इत्यादि कुछ भी नहीं करूँगी, हाँ यदि तुम आज्ञा दो तो मैं थोड़ी देर के लिए नीचे उतर कर मैदान में टहलूँ और दिल बहलाऊँ’। गुलाबसिंह ने उसकी इस बात को भी गनीमत समझा और घूमने-फिरने की इजाजत दे दी।
इंदुमति का घूमने-फिरने के लिए गुलाबसिंह से आज्ञा ले लेना केवल इसी अभिप्राय से न था कि वह अपना दिल बहलावे बल्कि उसका असल मतलब यह था कि वह अकेले में बैठकर या घूम-फिर कर इस विषय पर विचार करे कि अब उसे क्या करना चाहिए क्योंकि गुलाबसिंह की समझाने-बुझाने वाली बातों से दुखी हो गई थी। उसका हरदम पास बैठे रह कर दिलासा देना या ढाँढस बँधाना उसे बहुत बुरा मालूम हुआ और इस बहाने से उसने अपना पीछा छुड़ाया।
उदास और पति की जुदाई से व्याकुल इंदुमति गुलाबसिंह के पास से उठी और धीरे-धीरे चलकर नीचे वाले सरसब्ज मैदान में पहुँचकर टहलने लगी। उधर गुलाबसिंह भी दिन भर का भूखा-प्यासा था। अत: जरी कामों से निपटने और कुछ खाने-पीने की फिक्र में लगा।
धीरे-धीरे घूमती-फिरती इंदुमति उस सुरंग के मुहाने के पास आ पहुँची जो यहाँ आने-जाने का रास्ता था और पहाड़ी के साथ एक पत्थर की साफ चट्टान पर बैठकर सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए। उसका मुँह सुरंग की तरफ था और इस आशा से बराबर उसी तरफ देख रही थी कि प्रभाकर सिंह को लिए हुए भूतनाथ अब आता ही होगा। उसी समय नकली प्रभाकर सिंह को लिए हुए भोलासिंह वहाँ आ पहुँचा और सुरंग के बाहर निकलते ही इंदु की निगाह उन पर पड़ी तथा उन दोनों ने भी इंदु को देखा।
इस समय भोलासिंह अपनी असली सूरत में था और उसे भूतनाथ के साथ जाते हुए इंदु ने देखा भी था इसलिए वह जानती थी कि वह भूतनाथ का ऐयार है अस्तु निगाह पड़ते ही उसे विश्वास हो गया कि भूतनाथ ने मेरे पति को भोलासिंह के साथ वहाँ भेज दिया है और पीछे-पीछे भूतनाथ खुद भी आता होगा।
नकली प्रभाकर सिंह और भोलासिंह सुरंग से निकल कर पाँच कदम आगे न बढ़े होंगे कि प्रभाकर सिंह को देखते ही इंदुमति पागलों की तरह दौड़ती हुई उनके पास पहुँची और उनके पैरों पर गिर पड़ी।
हाय, बेचारी इंदु को क्या खबर थी कि यह वास्तव में मेरा पति नहीं बल्कि कोई मक्कार उसकी सूरत बना मुझे धोखा देने के लिए यहाँ आया है। तिस पर भोलासिंह के साथ रहने से उसे इस बात पर शक करने का मौका भी न मिला। वह उसे अपना पति समझकर उसके पैरों पर गिर पड़ी और वियोग के दुःख को दूर करती हुई प्रसन्नता ने उसे गद्गद् कर दिया। कंठ रुद्ध हो जाने के कारण वह कुछ बोल न सकी, केवल गरम-गरम आँसू गिराती रही। भोलासिंह भी चुपचाप खड़ा आश्चर्य के साथ उसकी इस अवस्था को देखता रहा।
नकली प्रभाकर ने इंदुमति से कुछ न कहकर भोलासिंह से कहा, “भाई भोलासिंह, अब तो मैं बिलकुल ही थक गया हूँ। मेरी कमजोरी अब मुझे एक कदम भी आगे नहीं चलने देती। इंदु से मिलने का उत्साह मुझे यहाँ तक साहस देकर ले आया यही गनीमत है, नहीं दुश्मनों के दिए हुए जहर की बदौलत बिलकुल ही कमजोर हो गया हूँ। इत्तिफाक की बात है कि इंदु मुझे इसी जगह मिल गई। अब मैं कुछ देर तक सुस्ताए बिना एक कदम भी आगे नहीं चल सकता अस्तु तुम जाओ, गुलाबसिंह को भी खुशखबरी देकर इसी जगह बुला लाओ तब तक मैं भी अच्छी तरह आराम कर लूँ।” डेरा सैकड़ों कदम की दूरी पर था, तमाम मैदान पार करने के बाद पहाड़ी पर चढ़कर वह गुफा थी जिसमें गुलाबसिंह का डेरा था, अस्तु वहाँ तक जाने और आने में घड़ी भर से भी ज्यादा देर लग सकती थी तथापि भोलासिंह दौड़ा-दौड़ा जाकर गुलाबसिंह से मिला और उन्हें प्रभाकर सिंह के आने की खुशखबरी सुनाई। उस समय गुलाबसिंह रसोई बनाने की फिक्र में थे मगर यह खबर सुनते ही उन्होंने सब काम छोड़ दिया और प्रभाकर सिंह के आने की खुशखबरी सुनाई। उस समय गुलाबसिंह रसोई बनाने की फिक्र में थे मगर यह खबर सुनते ही उन्होंने सब काम छोड़ दिया और प्रभाकर सिंह से मिलने के लिए भोलासिंह के साथ चल पड़े।
जिस समय गुलाबसिंह को साथ लिए हुए भोलासिंह सुरंग के मुहाने पर पहुँचा तो वहाँ सन्नाटा छाया हुआ था। न तो प्रभाकर सिंह दिखाई पड़े और न इंदुमति ही नजर आई। ऐसी अवस्था देख भोलासिंह सन्नाटे में आ गया और अब उसे मालूम हुआ कि उसने धोखा खाया। वह घबड़ाकर चारों तरफ देखने के बाद यह कहता हुआ जमीन पर बैठ गया- “हाय, मैंने बुरा धोखा खाया। प्रभाकर सिंह के साथ-ही-साथ इंदुमति को भी हाथ से खो बैठा।”