हरिपुर के राजा करनसिंह राठू का बाग बड़ी तैयारी से सजाया गया, रोशनी के सबब दिन की तरह उजाला हो रहा था, बाग की हर एक रविश पर रोशनी की गई थी, बाहर की रोशनी का इन्तजाम भी बहुत अच्छा था। बाग के फाटक से लेकर किले तक जो एक कोस के लगभग होगा, सड़क के दोनों तरफ गञ्ज की रोशनी थी, हजारों आदमी आ-जा रहे थे। शहर में हर तरफ इस दरबार की धूम थी। कोई कहता था कि आज महाराज नेपाल की तरफ से राजा को पदवी दी जाएगी, कोई कहता था कि नहीं नहीं, महाराज को यहाँ की रिआया चाहती है या नहीं, इस बात का फैसला किया जाएगा और इस राजा को गद्दी से उतार कर दूसरे को राजतिलक दिया जाएगा। अच्छा तो यही होगा कि बीरसिंह को राजा बनाया जाये। हम लोग- इसके लिए लड़ेंगे, धूम मचावेंगे और जान तक देने को तैयार रहेंगे।
इसी प्रकार तरह-तरह के चर्चे शहर में हो रहे थे, शहर-भर बीरसिंह का पक्षपाती मालूम होता था, मगर जो लोग बुद्धिमान थे, उनके मुँह से एक बात भी नहीं निकलती थी और वे लोग मन-ही-मन में न-मालूम क्या सोच रहे थे। आज के दरबार में जो कुछ होना है, इसकी खबर शहर के बड़े-बड़े रईसों ओर सरदारों को भी जरूर थी, मगर वे लोग जबान से इस बारे में एक शब्द भी नहीं निकालते थे।
बाग में एक आलीशान बारहदरी थी, उसी में दरबार का इन्तजाम किया गया। उसकी सजावट हद से ज्यादे बड़ी हुई थी। खड़गसिंह ने राजा को कहला भेजा था कि दरबार में एक सिंहासन भी रहना चाहिए, जिस पर पदवी देने के बाद आप बैठाए जायेंगे, इसीलिए बारहदरी के बीचोबीच में सोने का सिंहासन बिछा हुआ था, उसके दाहिनी तरफ राजा के लिए और बायीं तरफ नेपाल के सेनापति खड़गसिंह के लिए चांदी की कुर्सी रक्खी गई थी, और सामने की तरफ शहर के रईसों और सरदारों के लिए दुपट्टी मखमली गद्दी की कुर्सियां लगाई गयी थीं। सजावट का सामान जो राज दरबार के लिए मुनासिब था, सब दुरुस्त किया गया था।
चिराग जलते ही दरबार में लोगों की अवाई शुरू हो गई और पहर रात जाते-जाते दरबार अच्छी तरह भर गया। राजा करनसिंह और खड़गसिंह भी अपनी- अपनी जगह बैठ गए। नाहरसिंह, बीरसिंह और बाबू साहब भी दरबार में बैठे हुए थे, मगर बाबाजी अपने मुँह पर नकाब डाले एक कुर्सी पर बिराज रहे थे, जिनको देख लोग ताज्जुब कर रहे थे और राजा इस विचार में पड़ा हुआ था कि ये कौन हैं?
राजा या राजा के आदमी नाहरसिंह को नहीं पहिचानते थे पर बीरसिंह को बिना हथकड़ी-बेड़ी के स्वतन्त्र देखकर राजा की आँख क्रोध से कुछ लाल हो रही थीं, मगर यह मौका बोलने का न था, इसलिए चुप रहा। हाँ, राजा की दो हजार फौज चारों तरफ से बाग को घेरे हुए थी और राजा के मुसाहब लोग इस दरबार में कुर्सियों पर न बैठ के न-मालूम किस धुन में चारों तरफ घूम रहे थे।
सेनापति खड़गसिंह के भी चार सौ बहादुर लड़ाके जो नेपाल से साथ आए थे, बाग के बाहर चारों तरफ बँट कर फैले हुए थे और नाहरसिंह के सौ आदमी भी भीड़ में मिले-जुले चारों तरफ घूम रहे थे। बाग के अन्दर दो हजार से ज्यादा आदमी मौजूद थे, जिनमें पांच सौ राजा की फौज थी और बाकी रिआया।
जब दरबार अच्छी तरह भर गया, खड़गसिंह ने अपनी कुर्सी से उठ कर ऊँची आवाज में कहा : “मैं महाराज नेपाल का सेनापति जिस काम के लिए यहाँ भेजा गया हूँ, उसे पूरा करता हूँ। आज का दरबार केवल दो कामों के लिए किया गया है, एक तो इस राज्य के दीवान बीरसिंह का, जिसके ऊपर राजकुमार का खून साबित हो चुका है, फैसला किया जाये, दूसरे राजा करनसिंह को अधिराज की पदवी दी जाये। इस समय लोग इस विचार में पड़े होंगे कि बीरसिंह जिस पर राजकुमार के मारने का इल्जाम लग चुका है, बिना हथकड़ी-बेड़ी के यहाँ क्यों दिखाई देता है। इसका जवाब मैं यह देता हूँ कि एक तो बीरसिंह यहाँ के राजा का दीवान है, दूसरे इस भरे हुए दरबार में से वह किसी तरह भाग नहीं सकता, तीसरे, परसों राजा के आदमियों ने उसे बहुत जख्मी किया है, जिससे वह खुद कमजोर हो रहा है, चौथे बीरसिंह को इस बात का दावा है कि वह अपनी बेकसूरी साबित करेगा। अस्तु, बीरसिंह को हुक्म दिया जाता है कि उसे जो कुछ कहना हो कहे।”
इतना कह कर खड़गसिंह बैठ गए और बीरसिंह ने अपनी कुर्सी से उठ कर कहना शुरू किया :
“आप लोग जानते हैं और कहावत मशहूर है कि जिस समय आदमी अपनी जान से नाउम्मीद होता है, तो जो कुछ उसके जी में आता है कहता है और किसी से नहीं डरता। आज मेरी भी वही हालत है। यहाँ के राजा करनसिंह ने राजकुमार के मारने का बिल्कुल झूठा इल्जाम मुझ पर लगाया है। उसने अपने लड़के को तो कहीं छिपा दिया है और गरीब रिआया का खून करके मुझे फँसाना चाहता है। आप लोग जरूर कहेंगे कि राजा ने ऐसा क्यों किया? उसके जवाब में मैं कहता हूँ कि राजा करनसिंह असल में मेरे बाप का खूनी है। पहिले यह मेरे बाप का गुलाम था, मौका मिलने पर इसने अपने मालिक को मार डाला और अब उसके बदले में राज्य कर रहा है। पहिले तो राजा को मेरा डर न था, मगर जब से नाहरसिंह ने राजा को सताना शुरू किया है और यहाँ की रिआया मुझे मानने लगी है तभी से राजा को मेरे मारने की धुन सवार हो गई है। नाहरसिंह भी बेफायदा राजा को नहीं सताता, वह मेरा बड़ा भाई है और राजा से अपने बाप का बदला लिया चाहता है। (करनसिंह, करनसिंह राठू, नाहरसिंह, सुन्दरी, तारा और अपना कुल किस्सा जो हम ऊपर लिख आये हैं, खुलासा कहने के बाद) अब आप लोग उन दोनों बातों का अर्थात एक तो मुझ पर झूठा इल्जाम लगाने का और दूसरे मेरे पिता के मारने का सबूत चाहेंगे। इनमें से एक बात का सबूत तो मेरा बड़ा भाई नाहरसिंह देगा, जिसका असल नाम विजयसिंह है और जो इसी दरबार में मौजूद है तथा सिवाय राजा के और किसी का दुश्मन नहीं है, और दूसरी बात का सबूत कोई और आदमी देगा जो शायद यहीं कहीं मौजूद है।”
इन बातों को सुनते ही चारों तरफ से ‘त्राहि-त्राहि’ की आवाज आने लगी। राजा के तो होश उड़ गए। अब राजा को विश्वास हो गया कि यह दरबार केवल इसलिए लगाया गया है कि यहाँ की कुल रिआया के सामने मेरा कसूर साबित कर दिया जाये और मैं नालायक और बेईमान ठहराया जाऊँ। यह सिंहासन भी शायद इसलिए रखवाया गया है कि इस पर रिआया की तरफ से नाहरसिंह या बीरसिंह को बिठाया जाये। ओफ्, अब किसी तरह जान बचती नजर नहीं आती! मेरे कर्मों का फल आज पूरा हुआ चाहता है! अगर मैं अपनी फौज का इन्तजाम न करता तो मुश्किल ही हो चुकी थी, लेकिन अब तो एक दफे दिल खोल के लड़ूंगा। लेकिन जरा और ठहरना चाहिए, देखें वह अपनी दोनों बातों का सबूत क्या पेश करता है। नाहरसिंह कौन है? सबूत लेकर आगे बढ़े तो देखें उसकी सूरत कैसी है?
राजा इन सब बातों को सोचता ही रहा, उधर बीरसिंह की बात समाप्त होते ही नाहरसिंह जिसका नाम अब हम बिजयसिंह लिखेंगे, अपनी कुर्सी से उठा और वही चीठी जो उसने रामदास की कमर से पाई थी, खड़गसिंह के हाथ में यह कह कर दे दी कि ‘एक सबूत तो यह है’।
खड़गसिंह ने उस चिट्ठी को खड़े होकर जोर से सभों को सुना कर पढ़ा और चिट्ठी वाला हाथ ऊँचा करके कहा, “एक बात का सबूत तो बहुत पक्का मिल गया, इस चिट्ठी पर राजा के दस्तखत के सिवाय उसकी मुहर भी है, जिससे वह किसी तरह इन्कार नहीं कर सकता है।” चीठी को सुनते ही चारों तरफ से आवाज आने लगी, “लानत है ऐसे राजा पर। लानत है ऐसे राजा पर!!
खड़गसिंह अपनी कुर्सी पर बैठे ही थे कि बाबाजी उठ खड़े हुए। मुँह से नकाब हटा कर सिंहासन के पास चले गए, और जोर से बोले -“दूसरी बात का सबूत मैं हूँ! (सभा की तरफ देख कर) राजा तो मुझे देखते ही पहचान गया होगा कि मैं फलाना हूँ, मगर आप लोग यह सुन कर घबड़ा जायेंगे कि बीरसिंह का बाप करनसिंह जिसे राजा ने जहर दिया था और जिसका किस्सा अभी बीरसिंह आप लोगों को सुना चुका है मैं ही हूँ। मेरी जान बचाने वाले का भाई भी इस शहर में मौजूद है, हाँ यदि राजा का जोश कोई रोक सके तो मैं आप लोगों को अपना विचित्र हाल सुनाऊँ, मगर ऐसी आशा नहीं है। बेईमान राजा की जल्दबाजी आप लोगों को मेरा किस्सा सुनने न देगी। देखिए, देखिए, वह बेईमान कुर्सी से उठ कर मुझ पर वार किया चाहता है! नमकहराम और विश्वासघाती को अब भी शर्म नहीं मालूम होती और वह….!!”
बाबाजी की बातें क्योंकर पूरी हो सकती थीं! बेईमान राजा का दिल उसके काबू में न था और न वह यही चाहता था कि बाबाजी (करनसिंह) यहाँ रहें और उनकी बातें कोई सुने! वह बहुत कम देर तक बेखुद रहने बाद एकदम चीख उठा और नयाम (म्यान) से तलवार खींच कर अपने आदमियों को यह कहता हुआ कि “मारो इन लोगों को, एक भी बच के न जाने पावे” उठा और बाबाजी पर तलवार का वार किया। बाबाजी ने घूम कर अपने को बचा लिया मगर राजा के सिपाही और सरदार लोग बीरसिंह और उसके पक्षपातियों पर टूट पड़े। लड़ाई शुरू हो गई और फर्श पर खून-ही-खून दिखाई देने लगा पर बीरसिंह के पक्षपाती बहादुरों के सामने कोई ठहरता दिखाई न दिया।
राजा करनसिंह के बहुत-से आदमी वहाँ मौजूद थे और दो हजार फौज भी बाहर खड़ी थी, जिसका अफसर इसी दरबार में था, मगर बिल्कुल बेकाम। किसी ने दिल खोल कर लड़ाई न की, एक तो वे लोग राजा के जुल्मों की बात सुन पहिले ही बेदिल हो रहे थे, दूसरे, आज की वारदात, बीरसिंह और सुन्दरी का किस्सा, और राजा के हाथ की लिखी चिट्ठी का मजमून सुन कर और राजा को लाजवाब पाकर सभी का दिल फिर गया। सभी राजा के ऊपर दाँत पीसने लगे।
केवल थोड़े-से आदमी जो राजा के साथ-ही-साथ खुद भी अपनी जिन्दगी से नाउम्मीद हो चुके थे, जान पर खेल गए ओर रिआया के हाथों मारे गए। इस लड़ाई में बाबू साहब का और राजा करनसिंह राठू का सामना हो गया। बाबू साहब ने करनसिंह को उठा कर जमीन पर दे मारा और उंगली डाल कर उसकी दोनों आँखें निकाल लीं।
इस लड़ाई में सुजनसिंह, शम्भूदत्त और सरूपसिंह वगैरह भी मारे गये। यह लड़ाई बहुत देर तक न रही और फौज को हिलने की भी नौबत न आई। खड़गसिंह ने उसी समय बीरसिंह को जो जख्मी होने पर भी कई आदमियों को इस समय मार चुका था और खून से तर-ब-तर हो रहा था, उसी सोने के सिंहासन पर बैठा दिया और पुकार कर कहा:
“इस समय बीरसिंह, जिनको यहाँ की रिआया चाहती है, राज-सिंहासन पर बैठा दिए गए। राजा बीरसिंह का हुक्म है कि बस अब लड़ाई न हो और सभों की तलवारें म्यान में चली जायें।”
लड़ाई शान्त हो गई, बीरसिंह को रिआया ने राजा मंजूर किया, और अंधे करनसिंह को देख-देख कर लोग हंसने लगे।