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भाग -5

7 जून 2022

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बेचारे बीरसिंह कैदखाने में पड़े सड़ रहे हैं। रात की बात ही निराली है, इस भयानक कैदखाने में दिन को भी अंधेरा ही रहता है; यह कैदखाना एक तहखाने के तौर पर बना हुआ है, जिसके चारों तरफ की दीवारें पक्की और मजबूत हैं। किले से एक मील की दूरी पर जो कैदखाना था और जिनमें दोषी कैद किए जाते थे, उसी के बीचोबीच यह तहखाना था, जिसमें बीरसिंह कैद थे। लोगों में इसका नाम ‘आफत का घर’ मशहूर था। इसमें वे ही कैदी कैद किए जाते थे, जो फाँसी देने के योग्य समझे जाते या बहुत ही कष्ट देकर मारने योग्य ठहराये जाते थे। इस कैदखाने के दरवाजे पर पचास सिपाहियों का पहरा पड़ा करता था।

नीचे उतरकर तहखाने में जाने के लिए पाँच मजबूत दरवाजे थे और हर एक दरवाजे में मजबूत ताला लगा रहता था। इस तहखाने में न-मालूम कितने कैदी सिसक-सिसक कर मर चुके थे। आज बेचारे बीरसिंह को भी हम इसी भयानक तहखाने में देखते हैं। इस समय इनकी अवस्था बहुत ही नाजुक हो रही है। अपनी बेकसूरी के साथ-ही-साथ बेचारी तारा की जुदाई का गम और उसके मिलने की नाउम्मीदी इन्हें मौत का पैगाम दे रही है। इसके अतिरिक्त न-मालूम और कैसे-कैसे खयालात इनके दिल में काँटे की तरह खटक रहे हैं। तहखाना बिलकुल अन्धकारमय है, हाथ को हाथ नहीं सूझता और यह भी नहीं मालूम होता कि दरवाजा किस तरफ है और दीवार कहाँ है?

इस जगह कैद हुए इन्हें आज चौथा दिन है। इस बीच में केवल थोड़ा-सा सूखा चना खाने के लिए और गरम जल पीने के लिए इन्हें मिला था, मगर बीरसिंह ने उसे छुआ तक नहीं और एक लम्बी साँस लेकर लौटा दिया था। इस समय गर्मी के मारे दुखित हो तरह-तरह की बातों को सोचते हुए बेचारे बीरसिंह, जमीन पर पड़े, ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं। यह भी नहीं मालूम कि इस समय दिन है या रात।

यकायक दीवार की तरफ कुछ खटके की आवाज हुई, यह चैतन्य होकर उठ बैठे और सोचने लगे कि शायद कोई सिपाही हमारे लिए अन्न या जल लेकर आता है–मगर नहीं, थोड़ी ही देर में कई दफे आवाज आने से इन्हें गुमान हुआ, शायद कोई आदमी इस तहखाने की दीवार तोड़ रहा है या सेंध लगा रहा है।

आखिर उनका सोचना सही निकला और थोड़ी देर बाद दीवार के दूसरी तरफ रोशनी नजर आई। साफ मालूम हुआ कि बगल वाली दीवार तोड़ कर किसी ने दो हाथ के पेटे का रास्ता बना लिया है। अभी तक उन्हें इस बात का गुमान भी न था कि उनसे मिलने के लिए कोई आदमी इस तरह दीवार तोड़ कर आवेगा। उस सेंध के रास्ते हाथ में रोशनी लिए एक लम्बे कद का आदमी स्याह पोशाक पहिरे मुँह पर नकाब डाले उनके सामने आ खड़ा हुआ और बोला :

आदमी : मैं तुम्हें छुड़ाने के लिए यहाँ आया हूँ, उठो और मेरे साथ यहाँ से निकल चलो।

बीर : इसके पहिले कि तुम मुझे यहाँ से छुड़ाओ, मैं जानना चाहता हूँ कि तुम्हारा नाम क्या है और मुझ पर मेहरबानी करने का क्या सबब है?

आदमी : इस समय यहाँ पर इसके पूछने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि समय बहुत कम है। यहाँ से निकल चलने पर मैं अपना पता तुम्हें दूँगा, इस समय इतना ही कहे देता हूँ कि तुम्हें बेकसूर समझ कर छुड़ाने के लिए आया हूँ।

बीर : सब आदमी जानते हैं कि मुझ पर कुंअर साहब का खून साबित हो चुका है, तुम मुझे बेकसूर क्यों समझते हो?

आदमी : मैं खूब जानता हूँ कि तुम बेकसूर हो।

बीर: खैर, अगर ऐसा भी हो तो यहाँ से छूट कर भी मैं महाराज के हाथ से अपने को क्योंकर बचा सकता हूँ?

आदमी : मैं इसके लिए भी बन्दोबस्त कर चुका हूँ।

बीर : अगर तुमने मेरे लिए इतनी तकलीफ उठाई है तो क्या मेहरबानी करके इसका बन्दोबस्त भी कर सकोगे कि निर्दोषी बन कर लोगों को अपना मुँह दिखाऊँ और कुँअर साहब का खूनी गिरफ्तार हो जाये? क्योंकि यहाँ से निकल भागने पर लोगों को मुझ पर और भी सन्देह होगा, बल्कि विश्वास हो जाएगा कि जरूर मैंने ही कुँअर साहब को मारा है।

आदमी : तुम हर तरह से निश्चित रहो, इन सब बातों को मैं अच्छी तरह सोच चुका हूँ, बल्कि मैं कह सकता हूँ कि तुम तारा के लिए भी किसी तरह की चिन्ता मत करो।

बीर : (चौंककर) क्या तुम मेरे लिए ईश्वर होकर आए हो! इस समय तुम्हारी बातें मुझे हद से ज्यादा खुश कर रही हैं!

आदमी : बस इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कहा चाहता ओर हुक्म देता हूँ कि तुम उठो और मेरे पीछे-पीछे आओ।

बीरसिंह उठा और उस आदमी के साथ-साथ सुरंग की राह तहखाने के बाहर हो गया। अब मालूम हुआ कि कैदखाने की दीवारों के नीचे-नीचे से यह सुरंग खोदी गई थी।

बाहर आने के बाद बीरसिंह ने सुरंग के मुहाने पर चार आदमी और मुस्तैद पाये जो उस लम्बे आदमी के साथी थे। ये छः आदमी वहाँ से रवाना हुए और ठीक घण्टे-भर चलने के बाद एक छोटी नदी के किनारे पहुँचे। वहाँ एक छोटी सी डोंगी मौजूद थी, जिस पर आठ आदमी हल्की-हल्की डांड लिए मुस्तैद थे।

अपने साथी के कहे मुताबिक बीरसिंह उस किश्ती पर सवार हुए और किश्ती बहाव की तरफ छोड़ दी गई। अब बीरसिंह को मौका मिला कि अपने साथियों की ओर ध्यान दे और उनकी आकृति को देखे। लंबे कद के आदमी ने अपने चेहरे से नकाब हटाई और कहा, “बीरसिंह ! देखो और मेरी सूरत हमेशा के लिए पहिचान लो!”

बीरसिंह ने उसकी सूरत पर ध्यान दिया। रात बहुत थोड़ी बाकी थी तथा चन्द्रमा भी निकल आया था, इसलिए बीरसिंह को उसको पहिचानने ओर उसके अंगों पर ध्यान देने का पूरा-पूरा मौका मिला।

उस आदमी की उम्र लगभग पैंतीस वर्ष की होगी। उसका रंग गोरा, बदन साफ सुडौल और गठीला था, चेहरा कुछ लंबा, सिर के बाल बहुत छोटे और घुंघराले थे। ललाट चौड़ा, भौंहें काली और बारीक थीं, आँखें बड़ी-बड़ी और नाक लंबी, मूँछ के बाल नर्म मगर ऊपर की तरफ चढ़े हुए थे। उसके दाँतों की पंक्ति भी दुरुस्त थी। उसके दोनों होंठ नर्म मगर नीचे का कुछ मोटा था। उसकी गरदन सुराहीदार और छाती चौड़ी थी। बाँह लम्बी और कलाई मजबूत थी तथा बाजू और पिण्डलियों की तरफ ध्यान देने से बदन कसरती मालूम होता था। हर बातों पर गौर करके हम कह सकते हैं कि वह एक खूबसूरत और बहादुर आदमी था। बीरसिंह को उसकी सूरत दिल से भाई, शायद इस सबब से कि वह बहुत ही खूबसूरत और बहादुर था, बल्कि अवस्था के अनुसार कह सकते हैं कि बीरसिंह की बनिस्बत उसकी खूबसूरती बढ़ी-चढ़ी थी, मगर देखा चाहिए, नाम सुनने पर भी बीरसिंह की मुहब्बत उस पर उतनी ही रहती है या कुछ कम हो जाती है।

बीर : आपकी नेकी और अहसान की तारीफ मैं कहाँ तक करूँ! आपने मेरे साथ वह बर्ताव किया है जो प्रेमी भाई भाई के साथ करता है, आशा है कि अब आप अपना नाम भी कह कर कृतार्थ करेंगे।

आदमी : (चेहरे पर नकाब डालकर) मेरा नाम नाहरसिंह है।

बीर : (चौंक कर) नाहरसिंह! जो डाकू के नाम से मशहूर है!

नाहर : हाँ।

बीर : (उसके साथियों की तरफ देख कर और उन्हें मजबूत और ताकतवर समझ कर) मगर आपके चेहरे पर कोई भी निशानी ऐसी नहीं पाई जाती, जो आपका डाकू या जालिम होना साबित करे। मैं समझता हूँ कि शायद नाहरसिंह डाकू कोई दूसरा ही आदमी होगा।

नाहर : नहीं नहीं, वह मैं ही हूँ, मगर सिवाय महाराज के और किसी के लिए मैं बुरा नहीं। महाराज ने तो मेरी गिरफ्तारी का हुक्म दिया था न?

वीर: ठीक है, मगर इस समय तो मैं ही आपके अधीन हूँ।

नाहर : ऐसा न समझो; अगर तुम मुझे गिरफ्तार करने के लिए कहीं जाते और मेरा सामना हो जाता, तो भी मैं तुम से आज ही की तरह मिल बैठता। बीरसिंह, तुम यह नहीं जानते कि यह राजा कितना बड़ा शैतान और बदमाश है! बेशक, तुम कहोगे कि उसने तुम्हारी परवरिश की और तुम्हें बेटे की तरह मान कर एक ऊंचा मर्तबा दे रक्खा है, मगर नहीं, उसने अपनी खुशी से तुम्हारे साथ ऐसा बर्ताव नहीं किया, बल्कि मजबूर होकर किया। मैं सच कहता हूँ कि वह तुम्हारा जानी दुश्मन है। इस समय शायद तुम मेरी बात न मानोगे, मगर मैं विश्वास करता हूँ कि थोड़ी ही देर में तुम खुद कहोगे कि जो मैं कहता था, सब ठीक है।

बीर : (कुछ सोच कर) इसमें तो कोई शक नहीं कि राजाओं में जो-जो बातें होनी चाहिये, वे उसमें नहीं हैं मगर इस बात का कोई सबूत अभी तक नहीं मिला कि उसने मेरे साथ जो कुछ नेकी की, लाचार होकर की।

नाहर : अफसोस कि तुम उसकी चालाकी को अभी तक नहीं समझे, यद्यपि कुंअर साहब की लाश की बात अभी बिल्कुल ही नई है!

बीर: कुंअर साहब की लाश से क्या तात्पर्य? मैं नहीं समझा।

नाहर : खैर, यह भी मालूम हो जाएगा, पर अब मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ कि तुम मुझ पर सच्चे दिल से विश्वास कर सकते हो या नहीं? देखो, झूठ मत बोलना, जो कुछ कहना हो साफ-साफ कह दो।

बीर : बेशक, आज की कार्रवाई ने मुझे आपका गुलाम बना दिया है, मगर में आपको अपना सच्चा दोस्त या भाई उसी समय समझूँगा, जब कोई ऐसी बात दिखला देंगे, जिससे साबित हो जाये कि महाराज मुझसे खुटाई रखते हैं।

नाहर : बेशक, तुम्हारा यह कहना बहुत ठीक है और जहाँ तक हो सकेगा मैं आज ही साबित कर दूँगा कि महाराज तुम्हारे दुश्मन हैं और स्वयं तुम्हारे ससुर सुजनसिंह के हाथ से तुम्हें तबाह किया चाहते हैं।

बीर: यह बात आपने और भी ताज्जुब की कही!

जाहर : इसका सबूत तो तुमको तारा ही से मिल जाएगा। ईश्वर करे, वह अपने बाप के हाथ से जीती बच गई हो!

बीर: [चौंक कर) अपने बाप के हाथ से?

नाहर: हाँ, सिवाय सुजनसिह के ऐसा कोई नहीं है, जो तारा की जान ले। तुम नहीं जानते कि तीन आदमियों की जान का भूखा राजा करनसिंह कैसी चालबाजियों से काम निकाला चाहता है।

बीर : (कुछ सोच कर) आपको इन बातों की खबर क्योंकर लगी? मैंने तो सुना था कि आपका डेरा नेपाल की तराई में है और इसी से आपकी गिरफ्तारी के लिए मुझे वहीं जाने का हुक्म हुआ था!

नाहर : हाँ, खबर तो ऐसी ही है कि नेपाल की तराई में रहता हूँ मगर नहीं, मेरा ठिकाना कहीं नहीं है और न कोई मुझे गिरफ्तार ही कर सकता है। खैर, यह बताओ, तुम कुछ अपना हाल भी जानते हो कि तुम कौन हो?

बीर : महाराज की जुबानी मैंने सुना था कि मेरा बाप महाराज का दोस्त था और वह जंगल में डाकुओं के हाथ से मारा गया, महाराज ने दया करके मेरी परवरिश की और मुझे अपने लड़के के समान रक्खा।

नाहर : झूठ। बिल्कुल झूठ! (किनारे की तरफ देख कर) अब वह जगह बहुत ही पास है, जहाँ हम लोग उतरेंगे।

नाहरसिंह और बीरसिंह में बातचीत होती जाती थी और नाव तीर की तरह बहाव की तरफ जा रही थी, क्योंकि खेने वाले बहुत मजबूत और मुस्तैद आदमी थे। यकायक नाहरसिंह ने नाव रोक कर किनारे की तरफ ले चलने का हुक्म दिया। माँझियों ने वैसा ही किया। किश्ती किनारे लगी और दोनों आदमी जमीन पर उतरे। नाहरसिंह ने एक माँझी की कमर से तलवार लेकर बीरसिंह के हाथ में दी और कहा कि इसे तुम अपने पास रक्खो, शायद जरूरत पड़े। उसी समय नाहरसिंह की निगाह एक बहते हुए घड़े पर पड़ी जो बहाव की तरफ जा रहा था। वह एकटक उसी तरफ देखने लगा। घड़ा बहते-बहते रुका और किनारे की तरफ आता हुआ मालूम पड़ा। नाहरसिंह ने बीरसिंह की तरफ देखकर कहा–“इस घड़े के नीचे कोई बला नजर आती है!

बीर : बेशक, मेरा ध्यान भी उसी तरफ है, क्या आप उसे गिरफ्तार करेंगे?

नाहर : अवश्य!

बीर : कहिये तो मैं किश्ती पर सवार होकर जाऊँ और उसे गिरफ्तार करूँ?

नाहर: नहीं नहीं, वह किश्ती को अपनी तरफ आते देख निकल भागेगा, देखो, मैं जाता हूँ।

इतना कह कर नाहरसिंह ने कपड़े उतार दिए, केवल उस लंगोट को पहरे रहा जो पहिले से उसकी कमर में था! एक छुरा कमर में लगाया और माँझियों को इशारा कर जल में कूद पड़ा। दूसरे गोते में उस घड़े के पास जा पहुँचा, साथ ही मालूम हुआ कि जल में दो आदमी हाथाबांहीं कर रहे हैं। माँझियों ने तेजी के साथ किश्ती उस जगह पहुँचाई और बात-की-बात में उस आदमी को गिरफ्तार कर लिया जो सर पर घड़ा औंधे अपने को छिपाये हुए जल में बहा जा रहा था।

सब लोग आदमी को किनारे लाये, जहाँ नाहरसिंह ने अच्छी तरह पहिचान कर कहा, “अख्आह, कौन! रामदास! भला बे हरामजादे, खूब छिपा-छिपा फिरता था! अब समझ ले कि तेरी मौत आ गई और तू नाहरसिंह डाकू के हाथ से किसी तरह नहीं बच सकता!”

नाहरसिंह का नाम सुनते ही रामदास के तो होश उड़ गए, मगर नाहरसिंह ने उसे बात करने की भी फुरसत न दी और तुरन्त तलाशी लेना शुरू किया। मोमजामे में लपेटी हुई एक चीठी और खंजर उसकी कमर से निकला, जिसे ले लेने के बाद हाथ-पैर बाँध नाव पर माँझियों को हुक्म दिया, “इसे नाहरगढ़ में ले जाकर कैद करो, हम परसों आवेंगे, तब जो कुछ मुनासिब होगा, किया जायेगा।”

माँझियों ने वैसा ही किया और अब किनारे पर सिर्फ ये ही दोनों आदमी रह गए।

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रचनाएँ
कटोरा भर खून
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प्रस्तुत उपन्यास कटोरा भर खून चन्द्रकान्ता की ही परम्परा खत्री जी का एक अत्यन्त रोचक और मार्मिक उपन्यास है। इसमें वातावरण सामन्तीय होते हुए भी मानवीय संवेदनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। "काजर की कोठरी एक लघु उपन्यास है। इसका विशेष महत्त्व इसलिए भी है कि स्वयं खत्री जी ने तिलस्मी और ऐय्यारी के चक्करों से निकलकर जीवन के अपेक्षाकृत यथार्थ घटना-क्रम को अपनाने का साहस किया। इसमें घटना-क्रम की रोचकता, उत्सुकता और रहस्यमयता वैसी ही है
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अब हम थोड़ा-सा हाल तारा का लिखते हैं, जिसे इस उपन्यास के पहले ही बयान में छोड़ आये हैं। तारा बिल्कुल ही बेबस हो चुकी थी, उसे अपनी जिन्दगी की कुछ भी उम्मीद न रही थी। उसका बाप सुजनसिंह उसकी छाती पर बैठा

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रात पहर-भर जा चुकी है। खड़गसिंह अपने मकान में बैठे इस बात पर विचार कर रहे हैं कि कल दरबार में क्या-क्या किया जाएगा। यहाँ के दस-बीस सरदारों के अतिरिक्त खड़गसिंह के पास ही नाहरसिंह, बीरसिंह और बाबू साहब

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हरिपुर के राजा करनसिंह राठू का बाग बड़ी तैयारी से सजाया गया, रोशनी के सबब दिन की तरह उजाला हो रहा था, बाग की हर एक रविश पर रोशनी की गई थी, बाहर की रोशनी का इन्तजाम भी बहुत अच्छा था। बाग के फाटक से लेक

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भाग- 16

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