लोग कहते हैं कि नेकी का बदला नेक और बदी का बदला बद से मिलता. है मगर नहीं, देखो, आज मैं किसी नेक और पतिव्रता स्त्री के साथ बदी किया चाहता हूँ। अगर मैं अपना काम पूरा कर सका तो कल ही राजा का दीवान हो जाऊँगा। फिर कौन कह सकेगा कि बदी करने वाला सुख नहीं भोग सकता या अच्छे आदमियों को दुःख नहीं मिलता ? बस मुझे अपना कलेजा मजबूत कर रखना चाहिये, कहीं ऐसा न हो कि उसकी खूबसूरती और मीठी-मीठी बातें मेरी हिम्मत.. (रुक कर) देखो, कोई आता है !
रात आधी से ज्यादे जा चुकी है। एक तो अंधेरी रात, दूसरे चारों तरफ से घिर आने वाली काली-काली घटा ने मानो पृथ्वी पर स्याह रंग की चादर बिछा दी है। चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। तेज हवा के झपेटों से कांपते हुए पत्तों की खड़खड़ाहट के सिवाय और किसी तरह की आवाज़ कानों में नहीं पड़ती।
एक बाग के अन्दर अंगूर की टट्टियों में अपने को छिपाये हुए एक आदमी ऊपर लिखी बातें धीरे-धीरे बुदबुदा रहा है। इस आदमी का रंग-रूप कैसा है, इसका कहना इस समय बहुत ही कठिन है, क्योंकि एक तो उसे अंधेरी रात ने अच्छी तरह छिपा रक्खा है, दूसरे उससे अपने को काले कपड़ों से ढक लिया है, तीसरे अंगूर की घनी पत्तियों ने उसके साथ उसके ऐबों पर भी इस समय पर्दा डाल रक्खा है। जो हो, आगे चल कर तो इसकी अवस्था किसी तरह छिपी न रहेगी, मगर इस समय तो यह बाग के बीचोबीच वाले एक सब्ज बंगले की तरफ देख-देख कर दांत पीस रहा है।
यह मुख्तसर-सा बंगला सुन्दर लताओं से ढका हुआ है और इसके बीचोबीच में जलने वाले एक शमादान की रोशनी साफ दिखला रही है कि यहाँ एक मर्द और एक औरत आपस में कुछ बातें और इशारे कर रहे हैं। यह बंगला बहुत छोटा था, दस-बारह आदमियों से ज्यादे इसमें नहीं बैठ सकते थे। इसकी बनावट अठपहली थी, बैठने के लिए कुर्सीनुमा आठ चबूतरे बने हुए थे, ऊपर बांस की छावनी जिस पर घनी लता चढ़ी हुई थी। बंगले के बीचोबीच एक मोढ़े पर मोमी शमादान जल रहा था। एक तरफ चबूतरे पर ऊदी चिनियांपोत की बनारसी साड़ी पहिरे एक हसीन औरत बैठी हुई थी, जिसकी अवस्था अठारह वर्ष से ज्यादे की न होगी। उसकी खूबसूरती और नजाकत की जहाँ तक तारीफ की जाये थोड़ी है। मगर इस समय उसकी बड़ी-बड़ी रसीली आंखों से गिरे हुए मोती-सरीखे आँसू की बूंदें उसके गुलाबी गालों को तर कर रही थीं। उसकी दोनों नाजुक कलाइयों में स्याह चूड़ियाँ, छन्द और जड़ाऊ कड़े पड़े हुए थे, बाएँ हाथ से कमर बन्द और दाहिने हाथ से उस हसीन नौजवान की कलाई पकड़े सिसक-सिसक कर रो रही है, जो उसके सामने खड़ा हसरत-भरी निगाहों से उसके चेहरे की तरफ देख रहा था और जिसके अन्दाज से मालूम होता था कि वह कहीं जाया चाहता है, मगर लाचार है, किसी तरह उन नाजुक हाथों से अपना पल्ला छुड़ा कर भाग नहीं सकता। उस नौजवान की अवस्था पच्चीस वर्ष से ज्यादे की न होगी, खूबसूरती के अतिरिक्त उसके चेहरे से बहादुरी और दिलावरी भी जाहिर हो रही थी। उसके मजबूत और गठीले बदन पर चुस्त बेशकीमती पोशाक बहुत ही भली मालूम होती थी।
औरत : नहीं, मैं जाने न दूँगी।
मर्द : प्यारी ! देखो, तुम मुझे मत रोको, नहीं तो लोग ताना मारेंगे और कहेंगे कि बीरसिह डर गया और एक जालिम डाकू की गिरफ्तारी के लिए जाने से जी चुरा गया। महाराज की आँखों से भी मैं गिर जाऊँगा और मेरी नेकनामी में धब्बा लग जाएगा।
औरत : वह तो ठीक है, मगर क्या लोग यह न कहेंगे कि तारा ने अपने पति को जान-बूझ कर मौत के हवाले कर दिया?
बीर० : अफसोस! तुम वीर-पत्नी होकर ऐसा कहती हो?
तारा : नहीं, नहीं, मैं यह नहीं चाहती कि आपके वीरत्व में धब्बा लगे, बल्कि आपकी बहादुरी की तारीफ लोगों के मुंह से सुन कर मैं प्रसन्न हुआ चाहती हूँ, मगर अफसोस! आप उन बातों को फिर भी भूले जाते हैं, जिनका जिक्र मैं कई दफे कर चुकी हूँ और जिनके सबब से मैं डरती हूँ और चाहती हूँ कि आप अपने साथ मुझे भी ले चल कर इस अन्यायी राजा के हाथ से मेरा धर्म बचावें। इसमें कोई शक नहीं कि उस दुष्ट की नीयत खराब हो रही है और यह भी सबब है कि वह आपको एक ऐसे डाकू के मुकाबले में भेज रहा है जो कभी सामने होकर नहीं लड़ता बल्कि छिप कर लोगों की जान लिया करता है।
बीर० : (कुछ देर तक सोच कर) जहाँ तक मैं समझता हूँ, जब तक तुम्हारे पिता सुजनसिह मौजूद हैं, तुम पर किसी तरह का जुल्म नहीं हो सकता।
तारा : आपका कहना ठीक है, और मुझे अपने पिता पर बहुत-कुछ भरोसा है, मगर जब उस ‘कटोरा-भर खून’ की तरफ ध्यान देती हूँ, जिसे मैंने अपने पिता के हाथ में देखा था तब उनकी तरफ से भी नाउम्मीद हो जाती हूँ और सिवाय इसके कोई दूसरी बात नहीं सूझती कि जहाँ आप रहें मैं आपके साथ रहूँ और जो कुछ आप पर बीते उसमें आधे की हिस्सेदार बनूँ।
बीर : तुम्हारी बातें मेरे दिल में खुपी जाती हैं और मैं भी यही चाहता हूँ कि यदि महाराज की आज्ञा न भी हो तो भी तुम्हें अपने साथ लेता चलूँ, मगर उन लोगों के तानों से शर्माता और डरता हूँ, जो सिर हिला कर कहेंगे कि ‘लो साहब, बीरसिह जोरू को साथ लेकर लड़ने गये हैं!
तारा : ठीक है, इन्हीं बातों को सोच कर आप मुझ पर ध्यान नहीं देते और मुझे मेरे उस बाप के हवाले किये जाते हैं, जिसके हाथ में उस दिन खून से भरा हुआ चाँदी का कटोरा.. (काँप कर) हाय हाय! जब वह बात याद आती है, कलेजा काँप उठता है, बेचारी कैसी खूबसूरत.. ओफ ! !
बीर: ओफ! बड़ा ही गजब है, वह खून तो कभी भूलने वाला नहीं—मगर अब हो भी तो क्या हो ? तुम्हारे पिता लाचार थे, किसी तरह इनकार नहीं कर सकते थे ! (कुछ सोच कर) हाँ खूब याद आया, अच्छा सुनो, एक तरकीब सूझी है।
यह कह कर बीरसिंह तारा के पास बैठ गए और धीरे-धीरे बातें करने लगे।
उधर अंगूर की टट्टियों में छिपा हुआ वह आदमी, जिसके बारे में हम इस बयान के शुरू में लिख आए हैं, इन्हीं दोनों की तरफ एकटक देख रहा था। यकायक पत्तों की खड़खड़ाहट और पैर की आहट ने उसे चौंका दिया। वह होशियार हो गया और पीछे फिर कर देखने लगा, एक आदमी को अपने पास आते देख धीरे-से बोला, “कौन है, सुजनसिह?” इसके जवाब में “हाँ” की आवाज आई और सुजनसिह उस आदमी के पास जाकर धीरे-से बोला, “भाई रामदास, अगर तुम मुझे यहाँ से चले जाने की आज्ञा दे देते तो मैं जन्म-भर तुम्हारा अहसान मानता!”
रामदास : कभी नहीं, कभी नहीं !
सुजन : तो क्या मुझे अपने हाथ से अपनी लड़की तारा का खून करना पड़ेगा?
रामदास : बेशक, अगर वह मंजूर न करेगी तो।
सुजन : नहीं नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है! अभी से मेरा हाथ काँप रहा है और कटार गिरी पड़ती है।
रामदास : झख मार के तुम्हें ऐसा करना होगा!
सुजन : मेरे हाथों की ताकत तो अभी से जा चुकी है, मैं कुछ न कर सकूँगा।
रामदास : तो क्या वह ‘कटोरा-भर खून” वाली बात मुझे याद दिलानी पड़ेगी?
सुजन : (काँप कर) ओफ! गजब है!! (रामदास के पैरों पर गिर कर) बस-बस, माफ करो, अब फिर उसका नाम न लो। मैं करूँगा और बेशक वही करूँगा जो तुम कहोगे। अगर मंजूर न करे तो अपने हाथ से अपनी लड़की तारा को मारने के लिए मैं तैयार हूँ, मगर अब उस बात का नाम न लो! हाय, लाचारी इसे कहते हैं!!
रामदास : अच्छा, अब हम लोगों को यहाँ से निकल कर फाटक की तरफ चलना चाहिए।
सुजन : जो हुक्म।
राम : मगर नहीं, क्या जाने ये लोग उधर न जाये। हाँ देखो, वे दोनों उठे। मैं बीरसिह के पीछे जाऊँगा, तारा तुम्हारे हवाले की जाती है।
इधर बंगले में बैठे हुए बीरसिंह और तारा की बातचीत समाप्त हुई। इस जगह हम यह नहीं कहा चाहते कि उन दोनों में चुपके-चुपके क्या बातें हुईं, मगर इतना जरूर कहेंगे कि तारा अब प्रसन्न मालूम होती है, शायद बीरसिह ने कोई बात उसके मतलब की कही हो या जो कुछ तारा चाहती थी उसे उन्होंने मंजूर किया हो !
बीरसिंह और तारा वहाँ से उठे और एक तरफ जाने के लिए तैयार हुए।
बीर : तो अब मैं तुम्हारी लौंडियों को बुलाता हूँ और तुम्हें उनके हवाले करता हूँ।
तारा : नहीं, मैं आपको फाटक तक पहुँचा कर लौटूँगी, तब उन लोगों से मिलूँगी।
बीर : जैसी तुम्हारी मर्जी।
हाथ में हाथ दिये दोनों वहाँ से रवाने हुए और बाग के पूरब तरफ, जिधर फाटक था, चले। जब फाटक पर पहुँचे तो बीरसिंह ने तारा से कहा, “बस अब तुम लौट जाओ।”
तारा : अब आप कितनी देर में आवेंगे?
बीर : मैं नहीं कह सकता मगर पहर-भर के अन्दर आने की आशा कर सकता हूँ।
तारा : अच्छा जाइये मगर महाराज से न मिलियेगा।
बीर : नहीं, कभी नहीं।
बीरसिह आगे की तरफ रवाना हुआ और तारा भी वहाँ से लौटी, मगर कुछ दूर उसी बंगले की तरफ आकर मुड़ी और दक्खिन तरफ घूमी, जिधर एक संगीन सजी हुई बारहदरी थी और वहाँ आपुस में कुछ बातें करती हुई कई नौजवान औरतें भी थीं जो शायद तारा की लौंडियाँ होंगी।
धीरे-धीरे चलती हुई तारा अंगूर की टट्टी के पास पहुँची। उसी समय उस झाड़ी में से एक आदमी निकला, जिसने लपक कर तारा को मजबूती से पकड़ लिया और उसे जमीन पर पटक छाती पर सवार हो बोला, “बस तारा! तेरे इस समय रोने या चिल्लाने की कोई जरूरत नहीं और न इससे कुछ फायदा है। बिना तेरी जान लिए अब मैं किसी तरह नहीं रह सकता!!”
तारा : (डरी हुई आवाज में) क्या मैं अपने पिता सुजनसिह को आवाज सुन रही हूँ?
सुजन : हाँ, मैं ही कमबख्त तेरा बाप हूँ।
तारा : पिता! क्या तुम स्वयं मुझे मारने को तैयार हो?
सुजन : नहीं, मैं स्वयम् तुझे मार कर कोई लाभ नहीं उठा सकता, मगर क्या करूँ, लाचार हूँ .!
तारा: हाय! क्या कोई दुनिया में ऐसा है जो अपने हाथ से अपनी प्यारी लड़की को मारे?
सुजन : एक अभागा तो मैं ही हूँ तारा! लेकिन अब तू कुछ मत बोल। तेरी प्यारी बातें सुन कर मेरा कलेजा काँपता है, रुलाई गला दबाती है, हाथ से कटार छूटा जाता है। बेटी तारा! बस तू चुप रह, मैं लाचार हूँ ! !
तारा : क्या किसी तरह मेरी जान नहीं बच सकती?
सुजन : हाँ, बच सकती है अगर तू “हरी” वाली बात मंजूर करे।
तारा : ओफ, ऐसी बुरी बात का मान लेना तो बहुत मुश्किल है! खैर, अगर मैं वह भी मंजूर कर लूँ तो?
सुजन : तो तू बच सकती है, मगर मैं नहीं चाहता कि तू उस बात को मंजूर करे।
तारा : बेशक, मैं कभी नहीं मंजूर कर सकती, यह तो केवल इतना जानने के लिए बोल बैठी कि देखूँ तुम्हारी क्या राय है?
सुजन : नहीं, मैं उसे किसी तरह मंजूर नहीं कर सकता बल्कि तेरा मरना मुनासिब समझता हूँ। लेकिन हाय अफसोस! आज मैं कैसा अनर्थ कर रहा हूँ ! !
तारा : पिता, बेशक मेरी जिन्दगी तुम्हारे हाथ में है। क्या और नहीं तो केवल एक दफे किसी के चरणों का दर्शन कर लेने के लिए तुम मुझे छोड़ सकते हो ?
सुजन : यह भी तेरी भूल है, जिससे तू मिलना चाहती है, वह भी घण्टे-भर के अन्दर ही इस दुनिया से कूच कर जाएगा, अब शायद दूसरी दुनिया में ही तेरी और उसकी मुलाकात हो ! !
तारा : हाय ! अगर ऐसा है तो मैं पति के पहिले ही मरने के लिए तैयार हूँ, बस अब देर मत करो। हैं! पिता! तुम रोते क्यों हो ? अपने को सम्हालो और मेरे मारने में अब देर मत करो ! !
सुजन : (आंसू पोंछ कर) हाँ हाँ, ऐसा ही होगा, ले अब सम्हल जा ! !