सूरदास जी हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल के प्रसिद्ध और महान कवि थे। सूरदास जी भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। उनकी रचनाएं दिल को छू जाती हैं। ऐसे में उन्हें हिंदी साहित्य का सूर्य भी माना जाता है। सूरदास जी ने
इस पुस्तक में वेद पुराण संहिता आदि से लेकर भगवान नारायण माता लक्ष्मी राधा कृष्ण सीताराम सहित अन्य देवी देवताओं की स्तुतियों का संग्रह किया है जिससे हमारे सभी सनातन प्रेमियों तक यह ज्ञान पहुंच सके जय श्रीमन्नारायण
सूरसागर में लगभग एक लाख पद होने की बात कही जाती है। किन्तु वर्तमान संस्करणों में लगभग पाँच हजार पद ही मिलते हैं। विभिन्न स्थानों पर इसकी सौ से भी अधिक प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुई ह तक है इनमें प्राचीनतम प्रतिलिपि नाथद्वारा (मेवाड़) के सरस्वती भण्डार में
श्रीसूरदासजी हिन्दी-साहित्य-गगन के सूर्य तो हैं ही, बाल-वर्णन के क्षेत्र में भी सम्राट हैं-यह बात सर्वमान्य है। उसके दिव्य नेत्रों के सम्मुख उनके श्यामसुन्दर नित्य क्रीड़ा करते हैं। सूर कल्पना नहीं करते, वे तो देखते हैं और वर्णन करते हैं। इसीलिये
इस किताब में संवाद के माध्यम से जीवन जीने का बेहतरीन समाधान किया गया है साथ ही धर्म दर्शन के विषयों पर प्रकाश डालते हुए क्या होना चाहिए क्या नही होना चाहिए इस तरह की शंका का समाधान किया गया है। एक आस्था ही इतना बड़ा सम्बल है कि मनुष्य अपनी घोर प्रतिकू
हरिऔध जी पहले ब्रज भाषा में कविता किया करते थे | किंतु द्विवेदी जी के प्रभाव से खड़ी बोली के क्षेत्र में आए और खड़ी बोली को काव्य भाषा के रूप में प्रयुक्त किया | यह भारतेंदु के बाद सबसे अधिक प्रसिद्ध कवि थे | जो नए विषयों की काव्य जगत में स्थापना की
प्रत्येक भाषा के लिये स्थायी साहित्य की आव-श्यकता होती है। जो विचार व्यापक और उदात्त होते हैं, जिन का सम्बन्ध मानवीय महत्त्व अथवा सदा-चार से होता है, जो चरित्रगठन और उल की चरितार्थता के सम्बल होते हैं, जिन भावों का परम्परागत सम्बन्ध किसी जाति की सभ्य
जीवन एक पहेली है जिसे हर कोई अपने अपने नज़रिये से सुलझता है। ओर एक दिन हार कर वापस पर्भु के पास चला जाता है।
"मैं कौन हूं?" इसका कोई उत्तर नहीं है; यह उत्तर के पार है। तुम्हारा मन बहुत सारे उत्तर देगा। तुम्हारा मन कहेगा, तुम जीवन का सार हो। तुम अनंत आत्मा हो। तुम दिव्य हो,' और इसी तरह के बहुत सारे उत्तर। इन सभी उत्तरों को अस्वीकृत कर देना है : नेति नेति--तु
जिस प्रकार चंदन की सुगंध पानी के बूँद-बूँद में समा जाती है उसी प्रकार प्रभु की भक्ति भक्त के अंग-अंग में समा जाती है। यदि प्रभु बादल है तो भक्त मोर के समान है जो बादल को देखते ही नाचने लगता है। यदि प्रभु चाँद है तो भक्त उस चकोर पक्षी की तरह है जो बिन
रसखान का जन्म सन् 1548 में हुआ माना जाता है। उनका मूल नाम सैयद इब्राहिम था और वे दिल्ली के आस-पास के रहने वाले थे। कृष्ण-भक्ति ने उन्हें ऐसा मुग्ध कर दिया कि गोस्वामी विट्ठलनाथ से दीक्षा ली और ब्रजभूमि में जा बसे। सन् 1628 के लगभग उनकी मृत्यु हुई। र
Ye kitab ek punya k fal k upar h jo मजदूर और सेठ k beech mei hota h