धर्म का क्या मूल चिंतन??
*********************
पड़ रही दिन-रात प्रतिक्षण,
हवन-कुण्ड में समिधायें
है खड़ा मस्जिद नमाजी,
सिर को सजदे में झुकाये
हो रही गिरजा सुशोभित,
प्रार्थना के जोर से
गूंजता पावन गुरुद्वारा,
साखी-सबद के शोर से
ईष के आशीष को,
हर कोई सर है झुकाता
धर्म का क्या मूल चिंतन?
कौन लेकिन जान पाता,
भोर की मनमीत किरणे,
बाँटती खुद को कभी क्या?
वायु का शीतल-झकोरा
छांटता खुद को कभी क्या?
क्या कभी बहती नदी ने,
पूछा तुम्हारा धर्म क्या है?
या कभी तरु के फलों ने,
पूछा तुम्हारा कर्म क्या है?
हैं जो जड़ लौकिक जगत में,
उनमे चेतना निःस्वार्थ की है
है चेतना जिनको जगत में,
उनमे कमी पुरषार्थ की है
खोजते जिनको महल में,
वो कोयली के तान में है
या किसी नन्हे से बच्चे,
के मधुर मुस्कान में है
है पतझड़ों की धूप वो ही,
वो ही वसन्ती छाँव भी है
है वही बसता शहर सा,
और उजड़ा गाँव भी है
धर्म मानुष ने बनाया,
धर्म ने इंसान को ना
प्रेम करुणा ही धरम है,
पोषिये अभिमान को ना
मैं बड़ा मेरा बड़ा है,
है अहम का खेल सारा
अज्ञानता के अंधड़ों में,
खो गया है ध्रुवतारा
सच के पहरेदार झूठे,
आईना चेहरा छुपाता
धर्म का जो मूल चिंतन,
कौन लेकिन जान पाता??
© राकेश पाण्डेय