नेह में कोई समाये..
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हाय ये कैसी विसंगति,
कैसी निष्ठुर नियति हाय...
नेह में कोई समाये...
देंह कोई और पाये...
जब वस्त्रों से श्रृंगारों से--
साजन में खोई होंगी..
तब कितनी पीड़ाएँ भरकर--
अन्तस् में रोइ होंगी...
जब फेरों ने, बचनों से--
तुमको बांधे होंगे..
तब सुनी रातों वाले--
कसमे भी साधे होंगे...
तब चटके बिखरे स्वप्न जो तीखे---
मन कसैला घूंट जाये...
नेह में कोई समाये...
देंह कोई और पाये...
खुद के ही मन का तुमको--
धिक्कार सरल सहना होगा..
उस अनजाने का हर--
चाह तुम्हे गहना होगा...
इन कोमल-कोमल अंगों को--
दानव संग रिसना होगा..
काली फनकारी रातों को--
चादर बन बिछना होगा..
ऐसी ही कलुषित क्रीड़ा में--
अनगाई, अनचाही पीड़ा में--
घुटती चीख हृदय की,
दबकर ही अंदर रह जाये...
नेह में कोई समाये...
देंह कोई और पाये...
...राकेश