मैं क्या प्रमाण दूँ तुम्हे-
अपने प्रेम का
हाँ दे देता, अगर होता प्रचलन में-
कोई अधोलिखित पत्रावली
हाँ अगर सत्यापित ही करना है-
तो बन्द कर लो अपने नेत्र,
और आभाष करो अपने अधरों पर,
मेरे अधरों की गर्माहट को....
या फिर अपनी ही हाथ की उंगलियों को-
गले से स्पर्श करते हुये--
हृदय के गति के साथ धीरे-धीरे,
नाभि तक ले चलो...
तब तुम्हे अनुभव होगा मेरे स्पर्श का...
जिस दिन तुमसे मेरा प्रेम मिथ्या हो जायेगा,
उस दिन सत्य भी मिथ्या ही होगा...
मैं सच कहता हूँ---
कुछ दिन या कुछ रातों के गुजरने से
या जीवन का कुछ झंझावतों में पड़ने से..
धूमिल प्रेम पड़ जाये--
ये सच है वर्तन को ज्यादा घिसने से,
कुछ रंग जाता है उसका--
किन्तु खुद रंग होकर और चमक देता है
मैं जितना भी तुम्हारे प्रेम के निकट हूँ,
उसी प्रेम के गहरे बोध से कह रहा हूँ--
मेरा प्रेम आजीवन ज्यों का त्यों रहेगा..
आजीवन...
देख लेना कभी जब वृद्धावस्था में
मिलोगी कभी कहीं शरद की सुबह-
लाठी पर टिकाये खुद को...
मैं तब भी तुम्हारे चेहरे पर पड़े
रजनीश के मोती को---
अपने अधरों पर उठा लूंगा....
कुछ कोहरा घना होगा कुछ--
कुछ आंखों की रोशनी क्षीण होगी
फिरभी तुम्हारा हाथ थामे मैं
तुम्हे ले चलूँगा उसी रेलवे स्टेशन के--
बाहर वाली डाबली पर--
दो कुल्हड़ वाली चाय
दो कुल्हड़ के उम्र के बूढ़े,
उसमे फूंकते हुये फिर ताजा करेंगे--
प्रेम अपना--- समर्पण अपना,
त्याग अपना---
.....राकेश पाण्डेय