मन मेरा एकाकी था,
हाँ मन मेरा एकाकी था,
हाँ कुछ ना इसमे बाकी था.....
फिर एक दिन तुम आ मिली,
सुर -तरंगित हो गये,
गीत यौवन के शरण में,
अधरों पे इंगित हो गये...
तुम्हे देखकर ऐसा लगा,
नवदिप्ति-सुभ्रा सी छठा,
मुख कांतिमय,
हिमकर सा था,
विसरा मैं सुध-बुध,
संज्ञान ना था,
मेरा मुझे ही भान ना था,..
.तत्क्षण ही तुमने पूछा मुझे,
क्या देखते हो सखे,..?
स्वर-बद्ध लाखों रागनी,
हाँ एक स्वर में रागिनी,
एकसाथ ही बजने लगी,
जैसे ज्ञानी-ज्ञान पाकर,
हाँ मोह के उसपार जाकर,
भिक्षुक कोई दान पाकर,
हाँ कवि सम्मान पाकर,
जैसे मारुति लंका के पथपर,
मां सीता का भान पाकर,
हाँ सीता का भान पाकर,,
जैसे रूग्ण को औषध मिला हो,
हाँ फूल उपवन में खिला हो,
हाँ फूल पतझड़ में खिला हो,
जैसे चातक पा लिया हो, स्वाति के एक बूंद को,
हाँ स्वाति के एक बूंद को.....
...वैसे मुझे तुम मिल गयी,
यौवन की डाली खिल गयी,
फिर नित नये सोपान से,
होते उदित ही भानु के,
हम युगल बन फिरने लगे,
नव नीर में तिरने लगे,
हाँ युगल बन फिरने लगे,
हाय दुर्जनो के टीस बन,
आंखों में चुभने लगे,
हाँ कंटक बन चुभने लगे,
...फिर प्रेम यूँ बढ़ता गया,
नित नबीन अर्थ गढ़ता गया,
हाँ दिनकर सम चढ़ता गया,
वन-बाग-उपवन-वाटिका,
बैठे तृण-अट्टालिका,
हाँ नव-तरु-तालिका,
ले स्वप्न को खोये हुऐ,
जीवन शरण सोये हुऐ,
अपलक नयन खोए हुऐ.....
....
देखा था तेरे तात ने
देखा...था...तेरे...तात...ने..
...हाय कैसी विपदा में फँसे,
हम लज्जा से जाते धसे,
थे आक्रांत अपने कर्म से..
भर नेत्रों में ज्वाला विकट,
आह तात आये निकट,
रे कुलक्षणी-कुलघातनी,
कुलनासिनि-कुलडासिनी,
लज्जा तुझे क्यों आई ना,
जो अपने पे पछताई ना,
तुमको जरा सा भान ना,
मर्यादा का कुछ ज्ञान ना
हे अभागी एक कार्य कर,
दे विष मुझे या डूब मर,
हाँ तू डूब मर...
..हम ब्राह्मण है कुलीन,
ये तो है कुल से हीन,
हाँ ये तो है कुल से हीन,....
...
मैं विवश लाचार सा,
नेत्र नम था खड़ा,
था प्रेम धरती पर पड़ा,
था सोचता मैं खड़ा,
क्या प्रेम से कुल है बड़ा,..?
हाय प्रेम से कुल है बड़ा,....
बांह धर जबरन गये,
सुता संग निज धाम को,हाँ गये निज धाम को,
कुछ दिवस, कुछ मास तक,
हाँ विरह-उच्छवास तक,
फिर मिलन ना हो सका,
बिल्कुल मिलन ना हो सका,
दृग नयन ना हो सका...
...एक दिन तरु-छाई में,
पास की अमराई में,
हम जहाँ पर थे खड़े,
सामने ओ आ पड़े,
हाँ सामने ओ आ पड़े,
चौड़ी पाजेब थी,
विछुआ महावर से सजी,
रक्त-वर्णी पटोला,
ग्रीवा सुन्दर हार था,
हाँ यौवन सदा वहार था,
कर्ण, नासा में शुशोभित,
पूर्ण ही श्रृंगार था,
फिर दृष्टि मस्तक पर पड़ी,
थी एक रेखा सिन्दूर की,
हुआ मन व्यथित,निस्तेज सा,
हाँ सब चेतना कहीं खो गया,
फिर सम्भल कर उनसे कहा
...
...ये बता री दग्धया,
हाँ बता री निर्मया,
नेह से यों भागकर,
हृदय का परित्याग कर,
इस भरे लोचन नीर को,
मुझ आदग्धा-अधीर को,,
भूल बैठी क्या ओ प्रीति की बातें सभी,
प्यार की अभिसार की व्योहार की रातें सभी,
हाँ प्यार की रातें सभी,
तब कुलीना-लज्जाहीना,
स्वेत मोती की नागिना ताप-मीना,
ने कहा उच्छवास कर,
लज्जा और भरम त्यागकर,
हाँ अपनी लज्जा त्यागकर....
.....खेल था ओ बचपने का
क्यों खार खाये बैठे हो,
खेल और विनोद को हृदय से लगाये बैठे हो,
हाँ मन में दबाये बैठे हो,
मैं कुलीना कुल की कन्या,
पतित तेरा कुल -मान है,
हाँ क्या तेरा सम्मान है,
मैं पुहुप की सुन्दर क्यारी..
कांटों भरा तू सेज है,
हाँ तू निरा-निस्तेज है,.....
....आह दुस्टा मेरी सृस्टा,
निष्ठुर हो गया भाग्य है,
मां धरा अब तुम फटो,
दो शरण में स्थान अब, दो शरण में स्थान अब...
हाँ शरण में स्थान अब.....
..राकेश