तुम मत बोलो 'सॉरी जी'
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हर बार तड़पता रहता हूँ,
पथहीन भटकता रहता हूँ,
मेरा, स्वप्न धूमिल हो जाता है,
मेरा,मौन शिथिल हो जाता है,
मैं और विकल हो जाता हूँ,
खुद ही विह्वल हो जाता हूँ,
हैं शब्द तेरे दो भारी जी,
एक ज्वार हृदय में उठता है,
जब तुम कहती हो, 'सॉरी जी'
क्या प्रेम यही कहलाता है,
जब तुम्हे समय तो मिलना हो,
हर काम सजाओ तुम अपना,
हर काम संवारो तुम अपना,
जव वक़्त अकेला खाली हो,
तब भाव नदी में तिरना हो,
तेरे ही स्वप्न सजीले को,
पलकों में उतारा करता हूँ,
हर रात चमकते तारों से,
तेरी मांग संवारा करता हूँ,
तुम-बिन जीना न शरल हुआ,
तुम-बिन मरना दुश्वारी जी,
तेरे सपनों का भार लिये,
पलके होती हैं भारी जी..
एक ज्वार हृदय में उठता है,
जब तुम कहती हो 'सॉरी जी
तेरी जैसी जो प्रेयसी हो,
तो प्रेम कहाँ टिक पायेगा,
पावस की बूंदों सी यादें,
आंखों से बह जायेगा..
प्रेम-रति के कवि सारे,
गतिहीन हो जायेंगे,
फिर से नही 'जायसी' कोई,
पदमावत रच पायेगे...
कोयल की-कूक में होगी क्रन्दन,
अलि सुध-सुमन विसरायेगा,
क्यों मृग खोजेगा कस्तूरी को,
चातक प्यासा रह जायेगा,
प्रेम कैद हो जायेगी...
और जाग उठेगी मक्कारी जी,
शापित होकर स्नेह रहेगी,
नाचेगी गद्दारी जी...
एक ज्वार हृदय में उठता है,
जब तुम कहती हो 'सॉरी जी
मेरी जो तुमसे आशा है,
बस इतनी सी अभिलाषा है,
तुम मेरी भी परवाह करो,
मुझसे मिलने की चाह करो,
कहीं शीतल मन्द झकोरे में,
कहीं पुरवाई के घेरे में,
हम और तुम दोनो साथ चलें,
लेकर हाथों में हाथ चलें,
किसी कल-कल बहती नदिया के,
कोमल तृण पर बैठे हम,
जीवन को धन्य बनाकर के,
अपने किस्मत पर ऐंठे हम,
जैसे शाम लालिमा ले दिनकर,
बादल में छिपना चाहे,
वैसे ये प्रेमातुर मन तेरे,
आँचल में छिपना चाहे,
मैं चाहूँ नर्म उंगलियों से,
तुम लिखो हथेली पर मेरे,
चाहूँ की रक्तिम अधरों से,
तुम छूओ हथेली को मेरे,
मैं चाहूँ की ऋतु वसन्ती सी,
तुम अपना आँचल लहराओ,
या रखकर शीश वक्ष पर तुम,
अपनी जुल्फों को विखराओ,
मैं बस यही चाहता हूँ,
इन नयनन में बस जाओ तुम,
मैं तेरे मन में छिप जाता हूँ,
मेरे मन में छिप जाओ तुम,
यही हमारा विनय है तुमसे,
और यही मनुहारी जी,
अगर प्रेम है तो समय निकालो,
तुम मत बोलो 'सॉरी जी'
...राकेश पाण्डेय