स्त्री,,,😢😢
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मैंने आदिकाल से ,
संघर्षों को देखा है, सहा है,
मेरे ही आंखों से पानी,
आँचल से दुध बहा है,
पुरातन में जब,
तुम बिना वस्त्र ,
उदर-छुधा मिटाने को,
भटकते थे कंदराओं में,
और फिर जब थककर,
खोजते थे आश्रय तुम,
तब मैंने ही तुम्हे,
प्रश्रय दिया था अपने,
गन्धवाही केशों के छाँव में,
जब विकशित हुई धरा,
तब तुम ही तो थे,
जो भूल गये थे मेरे अस्तित्व को,
और लगा देते थे दांव पर,
जैसे कोई वस्तु हूँ मैं....
विनोद तुम्हारा, क्रीड़ा तुम्हारी,
अहम तुम्हारा, प्रतिशोध तुम्हारा,
पर प्रताड़ित मैं होती,
अपने सारे गुणों को समेटे,
मैं अबतक तुम्हारे जीवन,
को सम्हालती, संवारती आयी हूँ,
पर तुमने तो मेरे अस्तित्व,
को ही नकारा,
मुझे दुत्कारा...
जब काम-अग्नि,
हावी होती तुम पर
तब तुम मुझसे,
करते हो अभिनय प्रेम का,
पर मैं भले कामवश ही सही,
पर जब भी मिला मैंने,
सृजन के वीज को,
अंकुरित किया, सींचा-
रक्त से, स्नेह से,
और इस धरा को,
भविष्य के लिये ---
अग्रसारित किया,
पर तुम्हे क्या पता,
की, हर प्रसव पर,
पुनः जन्मी हूँ मैं,
पर इस पीड़ा को,
कभी बोझ न समझा,
पर तुम कहाँ समझोगे,
तुम तो मासिक धर्म को भी,
समझते हो अभिशाप,
जो की प्रक्रिया है,
सृष्टि के नव-पौध के,
अंकुरण का---
.....जब से विकशित हुये हो,
तब से ज्ञान इतना बढ़ा की,
बेटी के बाप से जो,
अपना वर्षों का संचित-रत्न,
तुम्हे सौंप रहा है,
उससे तुम गाड़ी,बंगला,
मांगते हो,
इस मानवीय मेल को,
जार-जार बना दिया
समाज के सबसे पवित्र रीति को,
बैल-बाजार बना दिया,
तुमने क्या नही किया,
डराया, धमकाया,
रुलाया, जलाया,
हमने इसे अपनी,
नियति मान लिया,
पर तेरा मन न भरा,
तूने मुझे गर्भ में ही मार दिया,
...ऐ निष्ठुर नियति,
तू ही बता क्या,
विधि का यही विधान है,
हर छण नारी जीवन,
मृत्यु के समान है,
मृत्यु के समान है.........
© राकेश पांडेय,