कोई स्वपन संजोने लगता है,,
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कूँ -कूँ करती कोयल की,
जब गीत सुहानी लगती है,,,
मीठी-मीठी स्वर कोई,
जब जानी-पहचानी लगती है,
जब प्रेम कापोलें भरतें है,
जब मन मे कलरव होता है,,,
तब एकाकी मन मेरा,
कोई स्वपन सजोने लगता है,,,,,,,,
जब पीली-पीली सरसों से,
धरती की शोभा बढ़ जाती है,,,
जब कोई कुमुदनी- भ्रमर के,,
प्रेम में पड़ जाती है,,
जब कलसी लेकर अलसी,,
अपने पर इतराती है,,,
जब गेहूं के खेतों में,,
पवन जरा थम जाती है,,
जब टप -टप महुवा गिरती है,
जब आम हरे रंग लाती है,,
जब मीठे-मीठे नीदों में,,
जग सारा सोने लगता है,,,,,,,
तब एकाकी मन मेरा ,
कोई स्वपन सजोने लगता है,,,,,,,
जब मधुप कोई मधु के लालच में,,
अपनी आहें भरता है,,
जब कोई चकोरा चंदा को,
तिरछे नजरों से तकता है,,
जब कोई चतुर चपला,,
नयनो के बाण चलाती है,,
जब गुथी हुई केश -बेणी,
जुड़े से खुल जाती है,,,
जब नवयौना अपना कोई,,,
आँचल गिरा लजाती है,,
जब चंचल मन मेरा,
आपा खोने लगता है,,,
तब एकाकी मन मेरा
कोई स्वपन सजोने लगता है,,,,
(राकेश पाण्डेय)