विसंगति
************
नही देखा नियति को-
होते लज्जाशील या,
फिर विलाप करते,
अपने विषंगति कृत्य पर--
किन्तु देखा है---
कठोर पर्वतों के पांव में,
उगते छालों को--
हाँ देखा है--
घने वृक्ष के जड़ों को,
धूप से धधकते--
हाँ देखा है--
उन्मादी निरंकुश सरित को,
एक बूंद को तरसते--
हाँ देखा है--
प्रियतम वसंत को,
एक सुमन को तरसते--
अब तक न समझा मैं,
कि, कौन ज्यादा दारुण है-
किसी राज सत्ता में खड़यँत्रकारी,
रक्तरंजित तलवार की गाथा--
या फिर..
अन्यायपूर्ण उगी प्रथाओं की-
भेंट चढ़ी प्रेमी युगल की पीड़ा..
हम चुप रहकर--
दुख को सहते हैं..
और छोभ को पी लेते हैं..
क्योंकि--
शापित हैं युगों से..
किसी गौतम ऋषि से..
जो पड़े हैं शिला बन --
किसी राम के अंतहीन इंतजार में..
किन्तु राम जन्मेंगे कहाँ?
धरा पर अब न तो कोई अयोध्या सा राज्य है,
और न ही कोई दसरथ..सा राजा..
....राकेश