हाँ शायद तुमने,
सीख लिया होगा शायद तुमने,
अबतक मन मार कर जीना...
हाँ शायद.....
हाँ शायद, तुम देखती होंगी जब,
कभी दर्पण में प्रतिविम्ब मेरा
बन्द कर लेती होगी नेत्र-
भय से......
शायद,
जो अबतक पसरा है
मेरे और तुम्हारे मध्य,
हाँ--
यह वही पीड़ा है
जिसे आनन्द बनाकर
मैं, ओढ़ता बिछाता हूँ...
हाँ शायद...हाँ ,
शायद--
तुम जब देंह से विवश
उतरती होगी सहवास में,
किन्तु,
बंधी पड़ी हृदय
खुलती न होगी...
तब शायद...
हाँ शायद...
मुझे खोलती होगी
हृदय के खूंटे से,
फिर खुल जाती है,
देंह की गठरी--
ले जाती क्रीड़ा को....
आनन्द के आसीम ऊँचाई तक--
तब जो ,
ढलक जाती है
नेत्रों के दोनो कोर से
तृप्ति की दो बूँद...
उन बूंदों में मैं ही होता हूँ--
हाँ शायद--
तुम जितना परे जाती हो,
मुझसे...
उतनी ही पास आती हो
तुम क्यों नही-
कर लेती हृदय एवं देंह का संतुलन
जैसे मैं करता हूँ--
दे दो देंह उसको
जिसे देंह चाहिये
पर हृदय रहने दो,
पास मेरे...
मत जियो मन मार कर
खोल दो स्वं को,
उड़ चलो...निर्बाध
जैसे उड़ती है तितली,
खिल उठो,महक उठो
जैसे गुलाब खिलकर महकता है
गाओ...उत्सव मनाओ
जो पीड़ा है वही आनन्द है
छोड़ दो देंह को धरा पर,
सब प्रपंच का है कारण
कर दो हृदय को देंह से अलग
उड़ चलो आनन्द के हिमशिखर तक
हाँ शायद....
कोई पुकारे झिझोंड़े तो लौट आना
निभा लेना मर्यादा कुछ देंह की भी
फिर पुनः थाम लेना मेरा डोर
उड़ चलेंगे हम-तुम--
गगन के ऊँचे छोर....
#तपिस प्यार की
©राकेश पाण्डेय
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