पता नहीं क्यों,आज दिन ढलते ही गर्मी से निजात पाने "अनुभव"अपने हवेली की खुली छत पर खुली हवा में सांस लेते हुए अपनी दोनों आंखें फाड़े हुए नीले व्योम के विस्तार को भरपूरता से देख रहे थे। जिस दिन से रिटायर हुए,उसके बाद से कुछ दार्शनिक बन से गये, वह अपने गांव भी जाते तो अक्सर शाम को नदी के तट जाकर टहलते और वहां के नीरव वातावरण में पता नहीं ,किस दुनियां में खो से जाते ,ऐसे में बरगद के पेड़ के फुनगी पर बैठीं कई चिड़ियां एक साथ कलरव करतीं और उन्हें उस दुनियां से बाहरी दुनियां में लातीं। शायद वे बताने की कोशिश करतीं कि जिस दुनियां में खोये हो ,वह किसी मतलब का नहीं ,इसलिए बाहर आओ। अगर तुम इस वातावरण में परमानन्द देने वाले ईश्वर को आराधना से प्राप्त करना चाहते हो तो लौकिक संसार से भागकर भगवान की प्राप्ति नहीं होने वाली।
मन के चक्रवातों में उलझे "अनुभव" कलरवों को कुछ सुना और कुछ अनसुना करते अपनी धुन में नदी के किनारे चलते चलते कुछ दूर निकल गया। विपरीत दिशा से पड़ोस के गांव से आते हुए बहुत बुजुर्ग मुल्ला जी एक बकरी की रस्सी पकड़े साथ में लिए कुछ लंगड़ाते हुए चले आ रहे थे। बकरी भी बीच बीच में मिमियां रही थी जिससे अनुभव का ध्यान उसकी ओर आकर्षित होता था। मुल्ला जी की नज़र कुछ कमजोर हो गई थी फिर भी पास आते ही 'अनुभव' को पहचानकर बोले,भइया ! तुम हीरालाल के बेटवा हो,अरे वह बहुत सज्जन आदमी रहिन।उस कहकहे में मैंने भी शामिल होकर कहा कि हां चाचा जान! यही उनके बेटा हैं उनके कुल के यही चिराग हवैं। पढ़ाई लिखाई करके नौकरी के चक्कर में परदेश चलि गयिन। बड़े ओहदे से जब से रिटायर भयेन,तभी से अपने गांव और कुटुंब की सुधि कीन्हेन हैं।'अनुभव' बीच में टोकते हुए हमसे बोले "आखिर हमारी जन्मभूमि है यह कैसा भी हो,पर यहां का घर,रहने वाले भाई भतीजे, भतीजियां हम सबका खेत और बंसवारी ।यह सब सोचकर सुकून और शांति का अनुभव होता है। हमने लाख शहर में रहकर वहां के उपलब्ध साधनों से अपना लक्ष्य हासिल कर लिया हो , शोहरत पा ली हो लाखों, करोड़ों कमा लिए हों पर यहां की मिट्टी में जन्म तो हुआ ही, यही नहीं इस मिट्टी,हवा और पानी ने बचपन के हमारे शुरुवाती दो तीन सालों के शरीर के रग रग में अपनी गंध तो भरी ही है। अपने गर्भ से जन्म देने वाली जननी इस संसार में तो है नहीं। गांव के लोग भले ही जितना मां को दोष दें,हमारे लिए तो आदर्श ही थी।हमारे समझ से नियति या भावी जैसी होती है वैसी धारणा बन जाती है उस कालखंड में वैसे कुदरती विचार दिमाग में बनते जाते हैं।हम तो अपनी किस्मत या प्रारब्ध के ही गुण दोष मानते हैं।
मुल्ला जी ने बकरी की रस्सी खींच कर उसके मिमियानें की आवाज को चुप कराने के लिए उसके दो तीन कोड़े लगाये। इसके बाद बोले, बाबू! तुम बहुत भाग्यवान हो।ऐसे विचार तो किसी देवदूत के होते हैं।भगवान को तुम्हें बड़मनई बनाना था। यहां गांव में पढ़ाई लिखाई को कोई तवज्जो नहीं देता। देखो न अपने घर के दूसरे चचेरे भाइयों को। बेचारा कोई सब्जी बेच रहा है कोई गांव गांव जाकर कबाड़ इकट्ठा करके पास के टाउन जाकर बेचता।
"अनुभव" ने उसकी बात पर तुरुप लगाते हुए कहा कि दूर के ढोल सुहावने लगते हैं । वहां हर कोई पड़ोसी के हंसी से परेशान हैं। छोटी छोटी बिमारियों के बड़े बड़े नर्सिंग होम्स हैं,जरा सा जुकाम और कफ कोल्ड है तो डाक्टर एक्स रे, ब्लड टेस्ट , स्टूल टेस्ट से लेकर सी टी स्कैन करवाने का सलाह दे देते हैं उसे देखने के बाद गम्भीर बिमारियों जैसे टी०बी०, अस्थमा और हार्ट प्रोब्लम का जिक्र कर देते हैं। दवाइयों का भारी भरकम बजट बना देते हैं ,मरीज गम्भीर बीमारियों के नाम सुनते ही अधमरा हो जाता हैं।लगभग सभी भावना विहीन और व्यवसायिक हो गये हैं। शहर में हर कोई बेचैन है ,इतना ही नहीं वे सभी बेचैन मन लिए बेतहाशा एक दिशा और एक ही लक्ष्य की ओर भाग रहे हैं , लगता है कि इस सरपट दौड़ में जो आगे होगा उसे ही चैन ( शांति) का उत्कर्ष प्राप्त होगा। पर शायद यह पता नहीं जिन सांसारिक साधन या उपलब्ध साधनों से लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं ,वे वैभव और सुख में बृद्धि या उसमें उत्कर्ष जोड़ सकते हैं पर आनन्द और चैन नहीं दे सकते ।कारण इनकी प्राप्ति होने पर कुछ क्षण संतोष का ठहराव महसूस करते हैं इसके बीतते ही कुछ और पाने की चाह लिए मन तसल्ली के साथ कुछ धीमी, फिर शनै शनै चकरघिन्नी की तरह रफ्तार कर लेता है।यही सारे सांसारिक भोग मानसिक रोग की जड़ हैं।
यह चर्चा सम सामयिक थोड़ी लम्बी और रोचक हो चली थी। अतः: हम तीनों पास के खेत में जाकर नीम के पेड़ के नीचे थोड़ा उगे घास पर बैठ गये। तभी एक डाकिया गांव में चिट्ठियां बांट कर हमारे बगल से साइकिल चलाते बाहर निकल रहा था। खाकी ड्रेस पहने वह नौजवान माधव था।लगभग दो साल हुए,सामने सड़क के किनारे गवर्नमेंट कॉलेज से पढ़कर निकला था। वह हमलोगों के पहचान का था। वह साइकिल से उतर गपसप में शामिल हो गया था।अब सूरज पश्चिम की ओर चलकर सुर्ख हो चला था, पेड़ों पर पक्षी अपने बसेरों में पहुंच कर चहचहा रहीं थीं। पोस्टमैन माधव थोड़ा मुखरित हुआ कि भाई साहब!अब चाहे गांव हो या शहर, सभी जगह गुजरते समय के साथ बदलाव आया है। संघर्ष सभी जगह है,देखो न, पोस्टमैन की जैसी ड्यूटी होती है वह पूरी तरह निभा रहा हूं लेकिन तनख्वाह कन्ट्रेक्चुएल के आधार पर मिलती है हमारा सहयोगी पोस्टमैन परमानेंट है और उसको हमसे तीन गुना तनख्वाह मिलता है। सरकारी पद धीरे धीरे कम होते जा रहे हैं। सरकार किसी को स्थायी करने के पक्ष में नहीं है। कहीं न कहीं इसके कारण हमारे बाप, दादा, चाचा,अग्रज रहें हैं। अधिकतर ये स्थाई सरकारी नौकरी पा जाने पर यथोचित काम नहीं किये हैं, पब्लिक को सुविधा लाभ देने के बजाय परेशानियों को खड़ा किये हैं। अब हमारे डिपार्टमेंट में देखो, स्थाई कर्मचारी यही कहते हैं कि अरे हम काम करें या न करें,हमारे वेतन या बोनस में कोई फर्क थोड़े पड़ेगा इसलिए क्यों काम करना? अब तो अधिकतर विभागों में सुविधाजनक मशीनें लगा दी गई हैं, कर्मचारियों की आवश्यकता को सीमित कर दिया है फाइलों और स्टेशनरियों का अम्बाला लगभग खत्म कर दिया है। तभी बुजुर्ग मुल्ला चाचा कमर में हाथ रखकर थोड़ा स्टाइल में पर गम्भीरता से बोले कि जहां संघर्ष है वहां तू ,तू ,मैं ,मैं भी है।शायद काल्पनिक क्लाइमेक्स के स्तर को छूने के चक्र में पड़ कर पूरा जीवन खपा देता है।
दिमाग में तर्क आता है कि चैन को पाने के लिए मानव संघर्ष करता है। बिना संघर्ष प्रगति नहीं। दूसरी ओर आदमी कहता है कि अब के युग में अपनी अस्मिता को बरकरार रखने के लिए जड़ों से जुड़े रहना जरूरी है हमारे ख्याल से यह सही भी लगा पर दूसरी ओर नजर दौड़ाई तो यह भी भावना में आया कि हम सभी घोंसला बनाने में इतने मसगूल होकर भूल गये कि हमारे उड़ने के पंख भी हैं। भावना की कीमत हर कोई नहीं समझ सकता इसलिए इसका खर्च वहीं करना चाहिए जहां उसकी कीमत हो । हमें यह समझना आवश्यक होगा कि नियति कोई भेद नहीं करती ।वह जो लेती है वही देती है अतः जब कुछ समझ में न आये तो ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए। उससे कुछ मत मांगो क्योंकि वह जानता है कि आपको क्या देना है।
यह सारा संसार कर्म का क्षेत्र है। अतः कर्मभूमि पर फल के लिए श्रम करना तो हम सबकी प्रवृत्ति होनी चाहिए क्योंकि नियति तो हथेली पर लकीरें देता है हमें रंग भरने की मेहनत करनी ही है। यदि मनुष्य के कर्म पवित्र हैं तो निश्चय ही उसकी जीवन रूपी नौका भयंकर विपदा रूपी बवंडर से निकलकर अपनी आनन्द का धाम की पा लेगी।वह किसी न किसी माध्यम से वेष बदलकर उसका बांह पकड़ कर सुरक्षित कर देती है। नि: श्वास की चरम स्थिति से मनुष्य के कदम जहां उसके साहस से बेदम होकर डगमगाता हैं वहीं से प्रशांत भाव से अपने मूक इशारे से नियति उसको मंजिल पहुंचने का रास्ता भी बताती है।
अनुभव ने मुल्ला चाचा की बात को आगे बढ़ाया और कहा कि जीवन में हर सफलता, समय और बलिदान मांगती है । इसलिए कभी किसी से ईर्ष्या नहीं रखनी चाहिए क्योंकि ईश्वर जिसको देते हैं अपने खजाने में से देते हैं किसी से छीनकर नहीं देते।आज आपके पास जो कुछ भी है वह आपका प्रारब्ध है।जीवन एक प्रतिध्वनि है यहां अच्छा, बुरा, झूठ और सच सबकुछ लौटकर आता है।
हमने कहा हम सभी के जीवन में मिली खुशियों का कोई पैमाना नहीं होता । कभी कभी क्षण भर के लिए हाथ पर बैठी हुई तितली मनुष्य के भावनाओं में अनेक रंग भर देती है।बुद्धिमान व्यक्ति वही है जो मिथ्या वस्तुओं के स्थान पर शाश्वत वस्तुओं या वास्तविक वस्तुओं को पसंद करता है दरअसल यही एक ही वास्तविक चीज़ है वह है सर्वोच्च आत्मा ।हम इसे सर्वोच्च स्व (आत्मन, ईश्वर) कह सकते हैं।सभी मूलरूप से एक हीं हैं। समस्याएं ट्रैफिक लाइट जैसी होती है थोड़े समय शांति से प्रतीक्षा करने के बाद हरी जरूर हो जाती है। कोहरे घना होने पर रास्ता दिखाई भले न दे पर रास्ता तो है ही क्योंकि फाग लाइट जलने से आगे का कुछ दूर का रास्ता साफ दिखने लगता है इसी प्रकार एकात्मकता, गम्भीरता, शांति और धैर्य रूपी फाग लाइट मन और मस्तिष्क में जलाने पर गम्भीर से गम्भीर समस्याओं रूपी घने कोहरे में समाधान रुपी रास्ता दिखने लगता है।
तभी पोस्टमैन माधव बोला कि हम सभी को मान, सम्मान, निंदा और अपमान कारकों से उदासीन रह उक्त बातों को ध्यान रख अपना कर्तव्य निभाना है क्योंकि ये मान और निंदा इत्यादि कारक कर्तव्य पालन में बाधक हैं क्योंकि इंसान की सोच में जब ये खोट आ जाते हैं तो वह होश में होकर बेहोश रहता है। परमात्मा हर मनुष्य की आत्मा में कुछ टेलीपैथी के माध्यम से संकेत देते हैं कुछ लोग डर की वज़ह से या "लोग क्या कहेंगे" हौए की वजह से संकेतों को अनदेखा करते हैं। जब हम संकेतों को टालते हैं तो वे और शक्तिशाली रूप में सामने आते हैं।फिर भी ध्यान नहीं दिया तो और भयंकर रूप में सामने आते हैं कि आंखों में पानी आ जाता है तब मन में एक ही सवाल उठता है कि मैंने उस वक्त कोई कदम क्यों नहीं उठाया ? इसलिए किसी डर की वज़ह से संकेतों को अनदेखा न करें।हर चीज हर घटना हमसे बात करती है उसे सुनना आवश्यक है।
जीवन की सारी समस्याएं हमारे मन पर पड़ने वाले प्रभाव पर निर्भर करती हैं यदि इनका प्रभाव न पड़ने दें तो वे व्यर्थ हो जाती हैं । अतः हमें स्वीकार करना है जो हो रहा है वही श्रेष्ठ है अतः अब से प्रत्येक बात की श्रेष्ठता देखते हुए उसे दिल से स्वीकार करने की आदत बनाना आवश्यक है।
सभी लोगों के इस तरह लम्बी बहस पर सार्थकता लिए हुए थी ।तभी माधव ने कहा अरे काफी देर हो गई हमें तो दस किलोमीटर यात्रा साइकिल से करनी हैं घर के सभी लोग इंतजार कर रहे होंगे। शीघ्रता से अपनी साइकिल उठाई और आगे चल पड़ा। हम सभी भी वार्ता स्थगित कर अपने अपने डेरे पर चले । मैंने सोचा आखिर "दुखड़ा किससे कहूं?"