हा, कि मैं खो जा सकूँ!
हा, कि उस के भाल पर अवतंस-पद मैं पा सकूँ
हा, किस उस के हृदय पर एकाधिकार जमा सकूँ!
टूट कर उस के करों, चिर-ज्योति में सो जा सकूँ
हा, कि उस के चरण छू कर आत्मभाव भुला सकूँ!
यदि न इतना भी लिखा हो भाग्य में, हे बंचने
हाय! देना विपिन-प्रान्तर में कहीं बिखरा मुझे!
पूर्णता हूँ चाहता मैं, ठोकरों से भी मिले
धूल बन कर ही किसी के व्योम भर में छा सकूँ!