तरु पर कुहुक उठी पड़कुलिया
मुझ में सहसा स्मृति-सा बोला
गत वसन्त का सौरभ, छलिया।
किसी अचीन्हे कर ने खोला
द्वार किसी भूले यौवन का
फूटा स्मृति संचय का फोला।
लगा फेरने मन का मनका
पर हा, यह अनहोनी कैसी
बिखर गया सब धन जीवन का!
जीवन-माला पहले जैसी
किन्तु एक ही उस में दाना
तू निरुपम थी, अपने ऐसी!
तेरा कहा न मैं ने माना
'भर लो अपनी अनुभव-डलिया।'
निरुपम! अब क्या रोना-गाना!
धूल, धूल मधु की रंगलिया!
परिचित भी तू रही अचीन्ही
तरु पर कुहुक उठी पड़कुलिया!