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हिन्दी की पुकार

नवलपाल प्रभाकर दिनकर

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हिन्दी की पुकार एक रात मैं बैड पर अर्धनिद्रा में लेटा हुआ, रात के करीब 10:00-11:00 बजे का समय था । तभी मेरे कानों से एक अजीब-सी ध्वनि टकराई। वह ध्वनि थी - “मैं तेरा नामों-निषान ही मिटा दूंगी । तु एक इतिहास बन कर रह जायेगी । जिस तरह से इंसान किसी जगह रहकर यह समझने लगता है कि यह केवल उसी की जगह है तो यह उसकी भूल ही होती है, क्योंकि कुछ समय पश्चात् कोई और तगड़ा मनुष्य या काल आने पर उसे वहां से हटना ही पड़ता है । अतः अब तो मेरा ही पलड़ा भारी है । हिन्दी बहन समझो, अब धीरे-धीरे दिन-रात करके मैं अपना रूप विकरात करती जा रही हूं, मगर तुम, तुम तो जैसे मिटती ही जा रही हो । भारत से भागने के सिवाय तुम्हारे पास कोई चारा ही नही है ।” “मैंने अपनी विजय पताका पूरे भारत में फहरा दी है । और यहां पर अपनी संस्कृति का पौधारोपण कर दिया है । जिसकी जड़े धीरे-धीरे सारे भारत में फैलने लगी है । पेड़ भरा-पूरा पनपने लगा है और भारत वाले मेरे इन फलों का आस्वादन करने लगे हैं । मेरे ये फल इतने मिट्ठे लगते हैं कि ये भारतीय लोग सब कुछ भूलने लगे हैं, लेकिन इन्हें शायद मालूम नही है कि ये फल देखने में सुन्दर खाने में सरस है परन्तु इनके अन्दर मिठा जहर भरा हुआ है जो भारतीय लोगों को अन्दर ही अन्दर से खोखला किए जा रहा है । अब इन भारतीय लोगों को मुझसे कोई नही बचा सकता ।” विदेशी भाषा अंग्रेजी रूपी औरत के चुप होते ही हिन्दी भाषा रूपी उस नारी ने कहा - “देखो बहन अंग्रेजी, तुम हमारी मेहमान हो । मेहमान का कुछ दिनों तक ही स्वागत होता है । जब तुम मेरे पास शरण मांगने आई थी तो मैंने तुम्हें शरण दी । अरी मेरी संस्कृति का हृदय तो बड़ा विषाल है । वह अज्ञात को भी शरण देने को तैयार हो जाती है । वह अपने और पराये में कोई फर्क नही समझती मगर आज तुमने यहां पर रहने और राज करने की जो बात कही है, उससे तो इसकी जड़े तक हिल गई हैं । मगर यह याद रखना कि यदि भारतीय लोगों को इसका पता चल गया तो समझ लेना कि जिस तरह से तुझे जन्म देने वाले लोग अंग्रेज भाग खड़े हुए, उसी तरह से तुम भी यहां से भाग जाओगी, मगर मैं तो यह कहती हूं कि तुम अच्छे तरीके से सम्मान के साथ विदा होकर जाओ । ताकि तुम्हारे सम्बंध मेरे साथ अच्छे बने रहें और सदा तुम मेरे पास आती-जाती रहो अंग्रजी बहन । “वाह री हिन्दी तुम तो ऐसे बोल रही हो जैसे यहां पर केवल तुम्हारा ही अधिकार है । मैं यदि चाहूं तो तुम्हें चुटकी के साथ निकाल दूं मगर नही मैं तो तुम्हारे भारत में तुम्हारा ही वो हाल देखना चाहती हूं जो एक भिखारिन का होता है । जिसके बदन पर फटे-पुराने कपड़े होते है । वह भीख मांगती फिरती है मगर उसे लोग ढोंग करती समझ कर भीख देने से भी इंकार कर देते हैं । वही हाल तुम्हारा भी हो उससे पहले ही तुम यहां से दुम दबाकर भाग जाओ ।” हिन्दी कहने लगी कि -”मैं तुम्हारी शिकायत आज की शिक्षित नारी से करूंगी । एक नारी ही दूसरी नारी की बात सूनती है आज की जागृत महिला मेरी बात जरूर सुनेगी और तुझे धक्के देकर निकाल देगी । अब तक तो प्यार से कह रही थी, मगर अब मुझे लगता है कि पानी सिर से ऊपर गया । हिन्दी के चुप होते ही व्यंग्यपूर्ण हंसी होंठो पर बिखेरती हुई बोली-”आज की जागृत महिला भी तो मेरी ही संस्कृति से रंगी हुई है वें भला मेरी संस्कृति को क्यों छोडेंगी । आज की युवा औरत तो मेरी सभ्यता से इतनी खुश हैं कि-आज उसे आदमी के बराबर आने का हक मिल गया है । अतः अब वे क्यों मेरा दामन छोडेंगी । एक बात और मेरी संस्कृति आज की हर औरत के रोम-रोम में समा चुकी है । कहां के तुम्हारे दामन-चुडि़यां, गहने और घूंघट आदि, आज मेरी कृपा से शरीर पर छोटे-छोटे कपड़े पहन कर किसी भी तरह से औरतें घुमें । जाओ कर लो मेरी शिकायत आज की औरत से, हिन्दी । हिन्दी फिर बोली –“ओहो मैं तो भूल ही गई थी कि आज की औरत पर भी तुम्हारी कालिमां छा गई है । आज हर तरफ औरतें नंगी बनी फिर रही हैं। जो समाज को खोखला करती जा रही हैं । उन्होनें तो जैसे मेरी संस्कृति सभ्यता को छोड़ ही दिया है, मगर आज के युवक तो हैं, वे ही मेरी बात मानकर तुम्हें जड़ संहित उखाड़कर फेंक देंगे।“ “आज का युवक, (हिन्दी की बात सुनकर अंग्रेजी ने चौंकने का अभिनय करते हुए कहा) आज का युवक तो जब तुम्हारी सुनेगा । तब उसे अपनी औरत की बातें सुनने से फुर्रस्त मिलेगी । आज का युवक तो स्त्री के इतने बस में हो गया है जैसे कि औरत का गुलाम हो । वह औरत से दूर हटने का प्रयास तक नही करता । यह सब तो मेरी ही संस्कृति का प्रभाव है ।” “हां ठीक कहती हो अंग्रेजी तुम (आंखों में पानी-सा छलकाती हुई हिन्दी ने कहा) आज का युवक वास्तव में औरत की गिरफ्त में जकड़ता जा रहा है । आज जो भी कांड, हत्याकांड आदि होते हैं । वे सभी औरतों के उकसाने पर पुरूष करते हैं । आज तो पुरूष, औरत की ऊंगली के इशारे पर जान देने को तैयार हो जाते हैं । “मगर आज पुलिस तो है ही । वह तो मेरी बात जरूर सुनेगी । पुलिस मेरी बात न्यायालय, उच्च न्यायालय तक पहूंचायेगी और मुझे न्याय दिलायेगी। मुझे न्याय मिलेगा और तुम्हें देश निकाला ।” “किस की बात कर रही हो (अंग्रेजी ने हंसते हुए कहा) आज इस पुलिस ने भी अंग्रजी वाला मुखौटा पहन लिया है । बाहर से हिन्दी के पुजारी, अन्दर तो उनके मेरी ही छवि भरी पड़ी है । वही मेरे बनाने वाले अंग्रेजों का छल, वही कपट, वही झूठ, वही चुगली, वही लोभ-लालच और वही सच को झूठ बनाने की कला में प्रवीण हैं । अब भला बताओ बहन हिन्दी, तुम्हें न्यायालय में पहचानने से पहले ही लूट लेंगे और किसी तरह तुम न्याय का दरवाजा खटखटाने न्यायाल पहुंच भी जाओगी तो वहां के चक्कर काटते-काटते ही तुम्हारा यह धूमिल-सा चेहरा ओर मिट्टी में मिल जायेगा । जो अक्ष तुम्हारा अभी बचा है वह भी नही रहेगा । इसलिए मेरा कहा मानो तो चुपचाप मेरी पनाह में आकर यहीं मेरे एक कोने में पड़ी रहो । तुम्हारा थोड़ा-बहुत औचित्य बचाकर मैं अपने साहित्य में बचाये रखूंगी । ये मेरा वादा तुमसे रहा। (अब तो हिन्दी की आंखों से लगभग आंसू छलक ही आये, और कहने लगी) “तुम शायद ठीक ही कहती हो । अब पुलिस वाले भी तुम्हारी संस्कृति अपना चुके हैं, और न्यायालय में झूठ का सहारा ही लिया जाता है । पैसे वाला हमेशा ही जीतता है और गरीब हारता है । वहां पर भी तुम्हारी जीत होगी, मगर मुझे एक आशा की ज्योति नजर आती है। आज के नेता, शायद मेरी पुकार सुन सकें।” “अरी वाह, हिन्दी शायद तुम नही जानती कि आज के नेता तो मेरे लिए सबसे बड़े शुभचिंतक हैं । मुझसे ही तो उन्होनें ये पाखंड, नीति, छल, और कपट सीखा है । वे मुझे अपने दिल से निकाल ही नही सकते । आज हर नेता अंग्रेजी भाषा में ही भाषण देना पसंद करता है । चाहे वह निरा अनपढ़ ही क्यों न हो । जो वह कहता है उसे कभी पूरा नही करते । यह मेरा ही प्रभाव है । तुम मेरे प्रभाव को समाप्त नही कर सकती हो, समझी ।” अब तो हिन्दी रोने लगी और उसके पैरों पर गिरकर गिड़गिड़ाने लगी। मुझे माफ करो अंग्रेजी बहन। मुझे शरण दो। अब तक तो अंग्रेजी उस पर हावी हो चली । तभी ..............................? मैं उठा और हिन्दी भाषा को सम्बोधित कर कहने लगा, इतनी जल्दी हार मान ली तुमने । अरी हिन्दी तुम तो महान हो जो तुम्हारी संस्कृति को भूल कर दूसरी संस्कृति की ओर दौड़े जा रहे हैं, उन्हें ठोकर जरूर लगेगी । वे वापिस मुडे़ंगे और तुम्हारी गोद में फिर से लौट आयेंगे और हां तुम्हारा साहित्य, तुम्हारी संस्कृति ओर तुम्हारी इज्जत बचाने वाले बहुत से लोग अभी शेष हैं । तुम कविवर्ग के पास जाओ और मुझे भी इतनी शक्ति प्रदान करो ताकि मैं भी अपनी संस्कृति अपनी प्यारी भाषा हिन्दी की रक्षा कर सकूं । यह सुनकर हिन्दी ने अपने आंसू पौंछे और खुशी-खुशी वहां से बाहर निकल गई । अब अंग्रेजी का मुंह देखने लायक था । उसके मुंह पर पसीना आ गया । वह भी चुपचाप मेरे कमरे से बाहर निकल गई । मेरी आंखें मिच गई । मुझे गहरी निंद आई । तभी एक स्वच्छ सफेद कपड़ों से सजी सुन्दर युवती मेरे सपने में आकर मुझसे कहने लगी -” मैं हिन्दी हूं । मेरे साहित्य व मेरे औचित्य को बचाना तुम्हारा लक्ष्य होना चाहिए । मैं तुम्हें वह शक्ति देती हूं। जो तुम्हें चाहिए । लो अपने दोनों हाथ फैलाओ । मैं तुम्हें कलम का धनी बनाती हूं । लिखो, लिखते रहो । मेरे साहित्य और संस्कृति को जगह-जगह आने वाली उलझनों और कठिनाईयों से बचाते रहो । यह आशिर्वाद देकर वह औरत चली गई । और उसी दिन से बस मैं लिखने लगा । -:-०-:- 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