आज फिर से बारिश का दिन है |
रत भर भी छाए रहे बादल
और हलकी हलकी बूँदें
भिगोती रहीं धरा बावली को नेह के रस में |
बरखा की इस भीगी रुत में
पेड़ों की हरी हरी पत्तियों
पुष्पों से लदी टहनियों
के मध्य से झाँकता सवेरे का सूरज
बिखराता है लाल गुलाबी प्रकाश इस धरा पर |
मस्ती में मधुर स्वरों में गान करते पंछी
बुलाते हैं एक दूसरे को और अधिक निकट
आपस में मिलकर एक हो जाने को
मिटा देने को सारा दुई का भाव |
मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू
फूलों की भीनी महक
मलयानिल की सुगन्धित बयार
कर देती हैं तब मन को मदमस्त |
मन चाहता है तब गुम हो जाना
किन्हीं मीठी सी यादों में |
वंशी के वृक्ष से आती मीठी ध्वनि सुन
और हवा से झूमती टहनियों को देख
तन मन हो जाता है नृत्य में लीन |
तेज़ हवा के झोंकों से झूमती वृक्षों की टहनियाँ
जगा देती हैं मन में राग नया
और बन जाता है एक गीत नया
अनुराग भरा, आह्लाद भरा
फिर अचानक
कहीं से खिल उठती है धूप
और हीरे सी दमक उठती हैं बरखा की बूँदें
जो गिरी हुई हैं हरी हरी घास पर |
धीरे धीरे ढलने लगता है दिन
सूर्यदेव करने लगते हैं प्रस्थान
अस्ताचल को
और खो जाती है समस्त प्रकृति
इन्द्रधनुषी सपनों में
ताकि अगली भोर
पुनः प्रभात के दर्शन कर
रची जा सके एक और नई रचना
भरी जा सके चेतनता
सृष्टि के हरेक कण कण में |
यही क्रम है बरखा की रुत में प्रकृति का
शाश्वत... सत्य... चिरन्तन...
किन्तु रहस्यमय...
जिसे लखता है मन आह्लादित हो
और हो जाता है गुम
इस सुखद रहस्य के आवरण में
पूर्ण समर्पण भाव से..........
https://purnimakatyayan.wordpress.com/2016/07/30/