पुष्प बनकर क्या करूँगी, पुष्प का सौरभ मुझे दो |
दीप बनकर क्या करूँगी, दीप का आलोक दे दो ||
हर नयन में देखना चाहूँ अभय मैं
हर भवन में बाँटना चाहूँ हृदय मैं
बंध सके ना वृन्त डाल पात से जो
थक सके ना धूप वारि वात से जो
भ्रमर बनकर क्या करूँगी, भ्रमर का गुंजार दे दो ||
उठ सके हर कोई ऊँचा उस गगन से
लख सकें कमनीयता सब निज नयन से
जल सके ना सूर्य के भी ताप से जो
खो सके ना चन्द्र के उल्लास में जो
विहग बनकर क्या करूँगी, विहग का आभास दे दो ||
मध्यधारों को भी तर जाए यहाँ जो
तट से टकरा कर भी गिर पाए नहीं जो
कितने आकर्षण मिलें उसको जगत में
मोह में ना बंध सके उनके कभी जो
लहर बनकर क्या करूँगी, नाव का आधार दे दो ||
दुःख में सुख में और भय में या अभय में
या जगत के कर्णभेदी कोलाहल में
ध्वनि न पड़ पाए कभी भी मन्द जिसकी
ताल ले से हो विमुख पाए नहीं जो
गीत बनकर क्या करूँगी, गीत का आलाप दे दो ||