मृत्यु से लाचार बैठा आदमी है,
है तभी तो फूल जग सर चढ़ रहा |
आँसुओं की गोद बस अब धूल ही है,
धूल का कण कण तभी तो खिल रहा ||
गोद में तम को लिये चंचल किरण है, ढल रहा है चाँद रजनी की भुजा में |
बूँद बनने के लिये व्याकुल वो नभ है, और धरा निज शीश पर ओढ़े सुमन है ||
प्राण हैं नश्वर, सकल संसार नश्वर |
है तभी सौन्दर्य इतना खिल रहा ||
बात कहने के लिये हँसते अधर हैं, किन्तु सुनकर नयन अब ये रो रहे हैं |
बूँद इक ढुलकी, हों लाखों आँधियाँ ज्यों, फेन सागर में तभी तो बढ़ रहे हैं ||
है मिलन का अन्त यह कितना विषैला,
है तभी तो दिन निशा से मिल रहा ||
धूल को मरघट सदा प्यारा लगा है, और अमृत को मनुज रीता लगा है |
अश्रु कहते आँख से अब रो नहीं तू, मृत्यु से जीवन सदा हारा समर में ||
है बना रणक्षेत्र यह संसार तब ही
है मनुज हर पल यहाँ भय खा रहा ||
बज रही सरगम मरण की भू गगन में, पर मनुज तो ना झुका है, ना झुकेगा |
एक विष की बूँद है सबके नयन में, पर समय तो ना रुका है, ना रुकेगा ||
किन्तु फिर भी प्रणय क्या, श्रृंगार क्या
है हरेक आँसू अंगारा बन रहा ||