मैं सदा शून्य का ध्यान किया करती हूँ,
और अनहद का आह्वाहन किया करती हूँ ||१||
आशाएँ मेरी दृढ़, ज्यों खड़ा हिमाचल,
मानस का है प्रतिबिम्ब मेरे, गंगाजल |
रोकेगा मेरी गति को कौन जगत में,
मैं गिरि को ठोकर मार दिया करती हूँ ||२||
मेरी गति में विद्युत् जैसा कम्पन है,
वाणी में सागर के समान गर्जन है |
बादल जैसा चीत्कार किया करती हूँ,
आँधी सा हाहाकार किया करती हूँ ||३||
जग के ये सूरज चंदा चमचम तारे,
पाएँगे क्या मेरा प्रकाश बेचारे |
मैं सदा गरल का पान किया करती हूँ,
और अमृत में स्नान किया करती हूँ ||४||
मुझको लख विस्मित होता है जग सारा,
क्या जाने वह मेरे सुख को बेचारा |
चिन्ताएँ मेरे पास नहीं आती हैं,
पल पल मस्ती में गान किया करती हूँ ||५||