मैं तो हार कभी ना
मानूँ ||
कितनी ही बाधाएँ रोक रहीं मग मेरा
आगे बढ़ता जाता है फिर भी डग मेरा
मैं ना बढ़ा हुआ पग पीछे धरना जानूँ ||
मैं चलती हूँ, इसीलिये निर्जीव ये राहें चल पड़तीं
मेरे
जलने से ही दसों दिशाएँ रोशन हो उठतीं
कितने
ही कंटक हैं रोक रहे मग मेरा
और
बना तूफ़ान हरेक उच्छ्वास है मेरा
पर
में तो बस चलना और जलाना जानूँ ||
मेरे
ही नयनों से रातों ने यह काजल है छीना
और
दीप ने भी तो मेरे मन का आज स्नेह छीना
कितनी
अँधियारी रातें हों पथ में मेरे
कितने
ही तुम दीप बुझा दो पथ के मेरे
मैं
तो जग में निज प्रकाश फैलाना जानूँ ||
मेरी
ही चेतनता से चेतन हो उठता है संसार
और
रागिनी से मेरी कर उठता है कण कण झंकार
तुम
मुझको रजकण में मिला मिटाना चाहो
या
मेरी सरगम को बन्द कराना चाहो
मैं
फिर भी चैतन्य, नहीं चुप रहना जानूँ ||
भारतीय विद्यार्थी परिषद दिल्ली से प्रकाशित मेरे उपन्यास “सौभाग्यवती भव” से