मैं आदिहीन, मैं अन्त हीन, मैं जन्म मरण से रहित सदा |
मुझमें ना बन्धन माया का, मैं तो हूँ शाश्वत सत्य सदा ||
जिस दिवस मृत्यु के घर में यह आत्मा थक
कर सो जाएगी
तन
लपटों का भोजन होगा, बन राख़ धरा पर बिखरेगा |
उस
दिन तन के पिंजरे को तज स्वच्छन्द विचरने जाऊँगी
मेरी
आत्मा मानव स्वरूप, फिर भी मैं शाश्वत सत्य सदा ||
जैसे
सिकता के तट पर हो स्वर्गानुरक्त कोई वृक्ष खड़ा
धरती
के आकर्षण को तज ऊँचा ऊँचा उठता जाता |
यों
ही जीवन के आलिंगन को तज, शाश्वत आत्मा मेरी
हो
जाएगी वह मुक्त, अन्त से हीन, बन्ध से रहित सदा ||
था
प्रथम सृष्टि का बीज गिरा जब धरती पर सदियों पहले
मेरा
आस्तित्व रहा तब भी, मैं जीवित थी सदियों पहले |
अब
जबकि प्रलय छा जाएगी, फिर नई सृष्टि जब जन्मेगी
तब
भी मेरी ही कथा चलेगी सृष्टि पृष्ठ पर सदा सदा ||
मैं
स्वयं प्रकृति का रूप बनी, और पुरुष रूप भी मैं ही हूँ
मैं
हूँ असीम, मैं हूँ अनन्त, मैं
पूर्णकाम, मैं काम रहित |
मैं
तुहिन बिन्दु का मौन पात, मैं जीवन का सागर अपार
मैं
एक चिरन्तन चिन्तक हूँ, हूँ जन्म मरण से रहित सदा ||