द्वितीय विश्व युद्ध को ग्लोबल वॉर और संपूर्ण युद्ध भी कहा जाता है. ग्लोबल वॉर इसलिए क्यूंकि इसमें विश्व के लगभग सारे ही देश प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े थे और संपूर्ण युद्ध इसलिए क्यूंकि इसमें केवल सैनिक ही नहीं आम नागरिक भी शामिल थे. खासतौर पर जर्मन, जर्मन अधिकृत यूरोप, स्टॅलिनगार्ड(यू.एस.एस.आर.) और जापान अधिकृत चाइना में तो सैनिकों से अधिक आम नागरिक ही मारे गये.
छः से सात साल चले इस भीषण युद्ध में ढ़ेरों छोटे बड़े युद्ध ढ़ेरों देशों की जमीनों पर लड़े गये. इनमें से कुछ महत्वपूर्ण पड़ाव और टर्निंग पॉइंट थे, जिन्हें इतिहास की पुस्तकें पढ़ के या इंटरनेट खंगाल के जाना जा सकता है. विश्व युद्ध में ढ़ेरों डाक्यूमेंट्रीज़ भी बनी हैं जिनको देख कर हमें बहुत हद तक विश्व युद्ध से एक थर्ड-पर्सन की तरह मुखातिब हो सकते हैं. साथ ही इन घटनाओं पर ढ़ेरों फ़िल्में भी बनी हैं, जिनके माध्यम से न केवल विश्व युद्ध की बेसिक जानकरी प्राप्त होती है बल्कि युद्ध को और अधिक जानने के लिए ये फिल्में एक प्रेरणा एक एपेटाईज़र का कार्य भी करती हैं.
चूंकि अंततः ये फ़िल्में ही हैं डाक्यूमेंट्रीज़ या पाठ्य-पुस्तकें और इंटरव्यूज़ नहीं अतः इनमें सिनेमेटिक लिबर्टी के साथ-साथ कुछ से लेकर ढेर सारा गल्प है. अतः इन फिल्मों को इतिहास के द्वार से अधिक न समझा जाए तथा विश्व युद्ध से संबंधित और अधिक, और गंभीर जानकारियां प्राप्त करने हेतु इतिहास का अध्ययन किया जाए.
तो आइए फिल्मों के माध्यम से, एक थर्ड पर्सन के रूप में द्वितीय विश्व युद्ध में प्रवेश करते हैं. कोशिश युद्ध की टाईम-लाइन को भी ध्यान में रखने की है:
# 1 – दी फ्लावर्स ऑफ़ वॉर(2011)
उद्देश्य ये नहीं है कि आपको विश्व युद्ध पर आधारित कुछ बेहतरीन फिल्मों के बारे में बताया जाए, बल्कि फिल्मों के माध्यम से विश्व युद्ध और उससे संबंधित महत्वपूर्ण घटनाओं को समझा जाए.
दी फ्लावर्स ऑफ़ वॉर, एक चाइनीज़ फ़िल्म है जिसका मूल नाम,’जिन लिंग शी सान चाई’ है. फ़िल्म की कहानी सिनेमेटिक लिबर्टी का बेहतरीन उदाहरण है, लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध की एक महत्वपूर्ण घटना, नानकिंग नरसंहार, पर बनी कुछ सबसे बेहतरीन फिल्मों में से एक.
नानकिंग नरसंहार द्वितीय विश्व युद्ध से कुछ पहले की घटना है और इसे द्वितीय चीन-जापान युद्ध के साथ जोड़कर भी देखा जा सकता है. नानकिंग नरसंहार को यूरोप के ‘यहूदी नरसंहार’ का एशियाई संस्करण कहा जा सकता है.
नानकिंग नरसंहार 13 दिसंबर 1937 को शुरू हुआ, और छह हफ़्तों तक चला. चीनी सैनिकों को हरा चुकने के बाद जापानी सैनकों ने नानकिंग शहर में चीनी नागरिकों की बड़े पैमाने पर हत्या और उनकी महिलाओं के साथ गैंगरैप किया. हत्या और बलात्कार में प्रताड़ना का वीभत्स चेहरा था. अनुमान है कि जापानियों ने 200,000 से 300,000 चीनियों को मौत के घाट उत्तर दिया था.
# 2 – हिटलर–दी राइज़ ऑफ़ इविल (2003), डाउनफॉल (2004)
हिटलर को द्वितीय विश्व युद्ध का खलनायक ही नहीं बल्कि संपूर्ण मानव इतिहास के कुछ सबसे क्रूर, मनोविकृत तानाशाहों में से एक कहा जाता है.
जहां एक तरफ़ उसे ही द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ करने का दोष दिया जाता है वहीं उसके अपराधों में यहूदियों का नरसंहार, सैनिकों को और देश को विपरीत परिस्थियों में युद्ध में झोकें रखना, फासिज्म जैसी सैकड़ों चीज़ें आती हैं.
जर्मन फ़िल्म डाउनफॉल, अपने नाम के ही अनुरूप उसके अंतिम समय के दस दिनों को और उस वक्त के उसके मनोवि ज्ञान को बेहतरीन ढंग से दिखाती है. वहीं दी राइज़ ऑफ़ ईविल एक बायोग्रेफिक टेलीफ़िल्म है.
ऐतिहासिक और तथ्यात्मक रूप से दोनों ही फ़िल्में सत्य के काफ़ी करीब हैं और इनका ट्रीटमेंट भी एक डाक्यूमेंट्री सरीखा है.
हिटलर के जीवन में रूचि रखने वालों और उसके विषय में और जानने की इच्छा रखने वालों के लिए ये फ़िल्में कम से कम प्रथम अध्याय तो सिद्ध होती ही हैं.
# 3 – डंकिर्क (2017)
क्रिस्टॉफर नोलान हॉलीवुड के कुछ बेहतरीन वर्तमान निर्देशकों में से एक माने जाते हैं. और डंकिर्क उनकी कुछ सबसे बड़ी सिने-उपलब्धियों में से एक है.
जर्मनी के हारने से पहले एक वक्त ऐसा भी था जब उसका पलड़ा भारी था और एलाईड से वो हर मोर्चे पर जीत रहा था. उसकी ब्लिट्ज-क्रिग तकनीक ने इंग्लैंड और फ़्रांस की संयुक्त सेना को फ़्रांस के तट – डंकिर्क तक खदेड़ दिया था. और तब, इंग्लैंड और चर्चिल का उद्देश्य केवल इतना था कि डंकिर्क में चारों ओर से घिरे इन अंगरेज़ और फ़्रांसिसी सैनिकों को कैसे बचाया जाए. तब इंग्लैड ने ऑपरेशन डायनमो नामक बचाव अभियान इनिशिएट किया.
जहां इंग्लैंड अपेक्षा कर रहा था कि ऑपरेशन डायनमो नामक बचाव अभियान में कुछ हज़ार सैनिक ही बच पाएंगे, वहीं जर्मन थल सेना की आगे न बढने और अपनी वायुसेना (लुफ्त्वाफ़ा) पर ही निर्भर रहने की ग़लत रणनीति के चलते, 26 मई से लेकर 04 जून 1941 तक चले द्वितीय विश्व युद्ध के इस सबसे बड़े बचाव अभियान में एलाईज़ सेना अपने 338,226 सैनिकों को बचाने में कामयाब रही.
जर्मनी की ख़राब रणनीति के साथ-साथ ख़राब मौसम, लुफ्त्वाफ़ा सैनिकों में सामंजस्य और मोटिवेशन का अभाव और इंग्लैंड के असैनिक नाविकों द्वारा की गयी अभूतपूर्व मदद भी ऑपरेशन डायनमो की आशा से अधिक सफ़लता का कारण बनीं.
इस अभियान के बाद चर्चिल द्वारा दी गयी ऐतिहासिक स्पीच भी फ़िल्म का हिस्सा है,”हम समुद्र तटों पर लड़ेंगे, हम मैदानों पर लड़ेंगे, हम खेतों में और सड़कों पर लड़ेंगे, हम पहाड़ियों में लड़ेंगे; हम कभी भी आत्मसमर्पण नहीं करेंगे…“
# 4 – पर्ल हार्बर (2001)
हमारा उद्देश्य इन फिल्मों के माध्यम से विश्व युद्ध के इतिहास को जानना है इसलिए हम फिल्मों की समीक्षा और इनकी कहानी में नहीं पड़ेंगे. अन्यथा ये फ़िल्म एक वॉर फ़िल्म से ज़्यादा एक रोमांटिक फ़िल्म है, जिसे बॉलीवुड के चाहने वाले ‘संगम’ फ़िल्म से प्रभावित भी कहते हैं.
फ़िल्म में ज़्यादातर काल्पनिक बातें ही हैं. किन्तु ये विश्व युद्ध की सबसे महत्पूर्ण घटनाओं में से एक के ऊपर बनी सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक है.
‘पर्ल हार्बर पर जापानी आक्रमण’ एक ऐसी घटना है जिससे पहले अमेरिकी नागरिक युद्ध के प्रति निर्लिप्त थे. वे द्वितीय विश्व युद्ध को यूरोप का (कॉन्टिनेंटल) युद्ध बता रहे थे. कई सर्वेक्षणों के अनुसार पच्चीस प्रतिशत से भी कम अमेरिकी जनता चाहती थी कि अमेरिका युद्ध में कूदे. कुछ वॉर डाक्यूमेंट्स ये भी कहते हैं कि युद्ध के उस दौर में भी अमेरिका में रंगरलियां मन रही थीं. लेकिन जापान के एक कदम ने ये सब बदल दिया. जिसे उस इंग्लैंड और चर्चिल के लिए एक वरदान कहा जाता है जो अब तक लगभग अकेले ही युद्ध लड़ रहा था.
होने को देर सवेर अमेरिका को भी युद्ध में कूदना ही था, क्यूंकि जापान को अंततः अमेरिका से लड़ना ही था. इसका कारण ये था कि अमेरिका और अमेरिका प्रभावित विश्व राजनीति ने जापान पर ढ़ेरों प्रतिबंध लगाकर उसे अलग थलग कर दिया था.
कारण – जापान द्वारा अपनी सीमा का विस्तार करने हेतु ऊपर बताया गया नानकिंग नरसंहार और उस जैसे कई अमानवीय कृत्य.
और बेशक अमेरिकी आम नागरिक न चाह रहे हों लेकिन अमेरिका की कांग्रेस यही चाह रही थी. इंग्लैंड से हथियारों और शोध हेतु आवश्यक वैज्ञानिक दस्तावेज़ों का आदान प्रदान होने लगा था. इट वज़ जस्ट अ मैटर ऑफ़ टाईम, कि कब अमेरिका भी युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से भागीदार होगा?
ये मौका दिया जापान ने अमेरिका के पश्चिमी तट पर स्थित पर्ल बन्दरगाह पर आक्रमण कर. 7 दिसम्बर 1941 को किये गये इस हमले में 2400 से ज्यादा अमरीकी और सौ से ज़्यादा जापानी सैनिक मारे गए थे और अमेरिका के 19 जहाज जिसमें 8 जंगी जहाज़ थे, नष्ट हो गए. अमेरिका, जो कि जापान पर लगाये गये प्रतिबंधों को हटाने की सोच रहा था अब युद्ध में कूद पड़ा.
# 5 – शिंडलर’स लिस्ट (1993)
‘कंसंट्रेशन कैम्प‘! मानवीय त्रासदी की इस थीम पर सैकड़ों हॉलीवुड और वैश्विक फ़िल्में बनी हैं.
इस पर बनी हर फ़िल्म आपको इतिहास के और करीब ले जाती है और मानवता की असफलता के काले अध्यायों को आपके सामने खोल के रख देती है. इनमें से एक फ़िल्म चुनना, न चुनी गयी फिल्मों के साथ अन्याय होगा. लेकिन फ़िर भी कोई एक फ़िल्म चुननी हो तो वो निश्चित रूप से यही होगी.
कंसंट्रेशन शिविर का संचालन 1934 के बाद से कंसंट्रेशन शिविर निरीक्षणालय (सी.सी.आई.) द्वारा किया गया था, जिसका 1942 में एस.एस.-विर्ट्शाफ्ट्स में विलय कर दिया गया था और उन्हें एस.एस.-टी.वी. द्वारा संरक्षण में रखा गया.
प्रारंभ में यहूदियों को अन्य जर्मनियों से अलग रखने के लिए इनका निर्माण हुआ लेकिन बाद में ये यहूदियों, समलैंगिकों, हिप्पियों आदि के क्रूर दमन का स्थान बना. ये कैम्पस जर्मन और जर्मन अधिकृत यूरोप में जगह जगह फैले थे और साठ लाख से अधिक यहूदियों की मृत्यु का कारण बने.
शिंडलर’स लिस्ट एक जर्मन व्यापार ी के जीवन की कहानी पर आधारित है. विश्व विख्यात हॉलीवुड निर्देशक स्टीवन स्पीलबर्ग की इस ब्लैक एंड व्हाईट बायोग्राफिक मूवी का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण सब-प्लाट कंसंट्रेशन कैंप में होने वाले अमानवीय कृत्य हैं. जो मूवी को कंसंट्रेशन कैम्प की एक सेमी-फिक्शन डॉक्यूमेंट्री के रूप में स्थापित करती है.
# 6 – एनिमी एट दी गेट्स (2001)
पोलैंड पर कब्ज़ा करने और उसे आधा-आधा बांटने के लिए एक वक्त रशिया (यू.एस.एस.आर.) और जर्मनी में गुप्त समझौता (मोलटॉव-रिबनट्रॉप पैक्ट) हुआ था, जो बहुत हद तक सफ़ल रहा था.
इस गुप्त संधि के चलते पोलैंड के अलावा भी अन्य कई यूरोपीय देशों में दोनों या दोनों में से एक कब्ज़ा जमाने में सफ़ल रहे. यानी कहना ग़लत न होगा कि रशिया एक वक्त एक्सिस देशों की तरफ़ से लड़ा या उनकी तरफ़ रहा. ये फ़्रांस और इंग्लैंड द्वारा जर्मनी पर युद्ध घोषित करने से पूर्व की बात है.
लेकिन ये ज़्यादा देर तक नहीं चला और 22 जून 1941 को जर्मनी ने रशिया (उस वक्त के यू.एस.एस.आर.) पर आक्रमण कर दिया. इसे उन्होंने ऑपरेशन बार्बोसा का नाम दिया.
इस अभियान के तहत मास्को के काफ़ी करीब पहुंचने के बावजूद भी जर्मन की सेना उसे नहीं जीत पायी. मुख्यतः बदलते मौसम के चलते. और तब जबकि जर्मन की 65% सेना रिज़र्व में थी और स्टॅलिन को यकीन था कि हिटलर फ़िर से मास्को पर हमला करेगा, हिटलर ने स्टॅलिनगार्ड पर हमला करना उचित समझा.
स्टॅलिनगार्ड की लड़ाई भी अपने अंतिम दौर में अजब सी थी, जिसे रैटनक्रिग भी कहा जाता है, अर्थात चूहों का युद्ध. जिसके बारे में कहा जाता है कि रसोईघर तो कब्ज़ा लिया था, लेकिन बेडरूम और लिविंग रूम के लिए युद्ध अभी भी ज़ारी था. देखने में यह युद्ध कम और शहर के दो गुटों के बीच माफिया-वार अधिक लग रहा था. कोई एक पोस्ट किसी एक सेना द्वारा बार बार हारी और कब्जाई जा रही थी.
23 अगस्त 1942 से 2 फ़रवरी 1943 तक चले इस युद्ध के उस अंतिम चूहे-बिल्ली वाले दौर को बड़े पर्दे पर सबसे बेहतरीन ढंग से प्रदर्शित करने वाली कोई फ़िल्म है तो वो है एनिमी ऑफ़ दी गेट्स.
# 7 – दी ब्रिज ऑन दी रीवर क्वाई (1957)
एक ओर जहां यूरोप में भीषण युद्ध चल रहा था वहीं दूसरी ओर जापान ने एशिया में कोहराम मचाया हुआ था. वो भारत की सीमा तक पहुंच गया था, और इंफाल में हुए एक्सिस और एलाईज़ के युद्ध में तो दोनों तरफ से ही भारतीय सैनिक शहीद हो रहे थे.
अपनी सीमाओं को विस्तार देने के लिए और मोर्चे पर रसद पहुंचाने हेतु एक मजबूत सप्लाई लाईन विकसित करने के लिए जापान रोड, ट्रेन और पुलों आदि का निर्माण करवा रहा था. मानव संसाधन के रूप में उसके पास बहुतायत में युद्ध बंदी थे.
भारत तक पहुंचने के प्रयास में बर्मा की एक नदी, क्वाई में पुल का निर्माण इसी योजना का अहम भाग था.
होने को फ़िल्म इसी नाम की फिक्शन नॉवेल पर आधारित है. फ़िल्म का अंत और नॉवेल का अंत थोडा अलहदा है. और फिक्शन नॉवेल में खुद 1943 के प्रारम्भिक दिनों में हुए वास्तविक घटनाक्रम की तुलना में काफ़ी क्रिएटिव-लिबर्टी ली गयी है. जो नॉवेल, फलतः फ़िल्म को वास्तविकता से कोसों दूर करती है. अतः ये फ़िल्म कहीं से भी एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ नहीं कही जा सकती. किन्तु फ़िर भी उस वक्त के एशिया, खासतौर पर बर्मा, भारत, श्रीलंका के हालातों की एक सांस्कृतिक और राजनैतिक दस्तावेज़ बनने में ये फ़िल्म आंशिक रूप से सफ़ल रही है और इस तरह की यह एकमात्र फ़िल्म है. विशुद्ध सिनेमा के लिहाज से फ़िल्म दर्शनीय है, और वॉर मूवीज में इसका एक अपना मुकाम है.
# 8 – सेविंग प्रायवेट रायन (1998)
कई महत्वपूर्ण मोर्चों पर विजयी होने और यू.एस.एस.आर. पर आक्रमण करने के बाद जर्मनी और एक्सिस गुट धृष्ट हो चला था. और उसे रोका जाना आवश्यक था.
लेकिन ये करना न तो किसी अकेले देश की सेना के लिए सम्भव था न जिजीविषा के बिना सम्भव था और न ही प्रॉपर प्लानिंग के बिना सम्भव था. और इन सब का उत्तर था – नोरमंडी आक्रमण.
अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, फ्री फ्रेंच फोर्सेस के साथ साथ कई अन्य देशों की एलाईड फोर्सेस ने इस अभियान में भागेदारी की. नोरमंडी के तट पर इन सैनिकों को उतारना सबसे पहला कार्य था. और यह कार्य किया गया 6 जून 1944 को, जिसे डी-डे भी कहा जाता है.
शायद पहली बार एलाईड की रणनीति अटैकिंग थी. लेकिन तट पर उतरना और वहां पर अपना बेस बनाना इतना आसान नहीं था.
सेविंग प्रायवेट रायन के प्रथम सत्ताईस मिनट इस दौरान के एलाईड आक्रमण और एक्सिस प्रतिरोध को पर्दे पर फ़िर से जीवित कर देते हैं.
इस आक्रमण के प्रथम दिन को इसलिए ही डी-डे कहा जाता है क्यूंकि यहां से युद्ध की बाज़ी पलटने लगी थी. जर्मन अब भी बेशक मजबूत था. मगर अब केवल इतना कि,”देखें युद्ध को कब तक सस्टेन रख पाता है.” एंड रेस्ट इज़ दी हिस्ट्री. शब्दशः !
# 9 – दी ग्रेव्स ऑफ़ फायर फ्लाइज (1988)
फ़िल्म के पहले की कुछ सीन्स में 21 सितम्बर 1945 को इस फ़िल्म का नायक जो कि जापानी है, दम तोड़ देता है.
यानी हिरोशिमा और नागासाकी में परमाणु बम गिराए जाने और जापान के सरेंडर करने और युद्ध के ऑफिशियली समाप्त होने के बाद. फ़िर फ़िल्म 16 मार्च से लेकर 21 सितम्बर 1945 के दौरान एक भाई बहन के सर्वाइवल पर फोकस हो जाती है.
ये फ़िल्म दरअसल ‘एंटी वॉर’ विधा में आती है. होने को फ़िल्म निर्देशक अकियुकी नोसाका इसे वॉर या एंटी-वार फ़िल्म मानने से इनकार करते हैं.
ये एनिमेटेड फ़िल्म, द्वितीय विश्व युद्ध के आफ्टरमेथ को बड़े ही दुखद ढंग से दिखाती है. और युद्ध से प्रभावित आम नागरिकों के पक्ष को बयान करती है, फ़िर चाहे वो जीता हुआ पक्ष हो या हारा हुआ. ये हारे हुए देशों के निरपराध नागरिकों की भी आवाज़ है. जिसकी थीम वही है जो जावेद अख्तर के इस गीत की – जंग तो चंद रोज़ होती है, ज़िन्दगी बरसों तलक रोती है.
इनके अलावा रागदेश (2017), रंगून (2017), कंचे (तेलगू – 2015), बोस –दी फॉरगॉटन हीरो (2005), हम दोनों (1961) जैसी भारतीय फ़िल्में विश्व युद्ध के भारतीय परिप्रेक्ष्य को दिखाने में बहुत हद तक सफ़ल रही हैं. किन्तु ऐसी फिल्में ज़्यादा नहीं हैं. तब जबकि भारतीय सेना संख्या बल के आधार पर एलाईड देशों की तीसरी बड़ी सैन्य शक्ति थी.