खुद को इंसान कहना हमें बड़े गुरूर से भर देता है. एक झटके में हम तमाम कुदरत से उपर उठ जाते हैं. हम झाड़-फनूस नहीं हैं. हम जानवर नहीं हैं, वहशी नहीं हैं. हम इंसान हैं. लेकिन इंसान हम तभी तक रहते हैं जब तक हम भीड़ हो जाने से बचे रहते हैं. ब्राज़ील में जो कुछ हुआ है, वो इसका अफसोसनाक उदाहरण है.
ब्राज़ील में करीब 500 लोगों की एक भीड़ ने एक औरत को पुलिस स्टेशन से घसीट के बाहर निकाल लिया. उसके साथ बुरी तरह मार-पीट हुई. उसे लहुलुहान करके भी बलवाईयों का मन नहीं भरा. उन्होंने पुलिस स्टेशन के बाहर खड़ी गाड़ियों में आग लगा कर उस औरत को उसमे झोंक दिया. और सबसे हैरत की बात ये है कि ये सब ‘इंसाफ’ के नाम पर हुआ. बलवाइयों की ये भीड़ एक बच्चे की मौत का बदला ले रही थी.
30 साल की इस औरत पर शक था कि उसने एक घर में आग लगा दी थी. उस घर में तीन बच्चों समेत 7 लोग थे. इस घटना में 2 साल के बच्चे की मौत हो गयी थी. पुलिस इस औरत से पूछताछ कर रही थी, उसपर किसी तरह का आरोप नहीं लगाया था. पुुलिस कुछ पक्का करती, इस से पहले ही भीड़ ने मंगलवार, 7 फरवरी की दोपहर पुलिस स्टेशन पर अटैक कर दिया.
इस दौरान पुलिस कुछ भी न कर पाई क्योंकि वहां पुलिसवाले बहुत कम थे और भीड़ में करीब 500 लोग शामिल थे. पुलिस ने बैक-अप के लिए गुहार तो लगाई मगर जब तक मदद आती, औरत को पीटा जा चुका था और वो काफी जल चुकी थी. भीड़ के इस अटैक में एक पांच साले के बच्चे के भी जलने की बात सामने आई है.
बैक-अप आने के बाद ही पुलिस उसे अस्पताल में भर्ती करवा पाई. वहां उसका इलाज चल रहा है. ब्राज़ील की पुलिस का कहना है कि अस्पताल से उसे एक सीक्रेट जगह ले जाया जाएगा जिससे उसे आगे कोई ऐसा नुकसान न पहुंचा सके.
पुलिस स्टेशन पर बलवा होना और किसी का शक की बिनाह पर भीड़ का शिकार बन जाना एक सामान्य लॉ-एंड ऑर्डर समस्या नहीं है. और न ऐसा है कि ये बस ब्राज़ील में होता है. मार्च 2015 में नागालैंड के दीमापुर में भी एक शख्स को जेल से बाहर निकल कर मार डाला था. बाद में ये सामने आया था कि मरने वाला बेगुनाह था. ऐसे कई और उदाहरण हैं.
भीड़ का ‘इंसाफ’
भीड़ कई बार इस भुलावे में इस तरह के काम करती है कि वो इंसाफ कर रही है. वो इंसाफ जो सिस्टम नहीं कर पाया. या उस तरह का इंसाफ जो सिस्टम कर ही नहीं सकता. हम ये भूल जाते हैं कि न्याय व्यवस्था का मकसद हमें क्लोज़र देना नहीं होता. उसका मकसद इंसाफ करना होता है. और इंसाफ, पीड़ित के साथ ही अपराधी का भी हक होता है. एक अपराधी को जेल में समाज से काटकर रखने के लिए, समाज को ‘सुरक्षित’ रखने के लिए नहीं रखा जाता. जेल का मकसद इंसान को वो वक्त देना होता है जो उसे खुद को तैयार करने के लिए चाहिए होता है. ताकि वो अपनी गलती से आगे बढ़ सके. समाज में वापस जाने लायक बन सके. इसलिए जेल में कैदियों के लिए लाइब्रेरी होती है. तरह-तरह के सेमिनार होते हैं. और जेल में भी किसी को तब ही भेजा जाता है जब उसपर अदालत में मुकदमा चले. उसे खुद को डिफेंड करने का एक मौका मिले. इसी के लिए अंग्रेज़ी में ड्यू प्रॉसेस शब्द है.
लेकिन इस तरह की घटनाओं में भीड़ किसी चीज़ की परवाह नहीं करती. नतीजे में इंसाफ की मांग के साथ शुरू हुई कोई कवायद देखते देखते बदला लेने की मुहिम बन जाती है. और एक स्वस्थ समाज बदले पर आधारित नहीं हो सकता. होना यही चाहिए कि अगर किसी इंसान से कोई चूक हो, तो उसे कानून सज़ा दे. न कि भीड़.
कहने वाले कह सकते हैं कि जिस समाज और सभ्यता की दुहाई यहां दी जा रही है, वही तय नहीं है. इसपर यही कहा जाएगा कि समाज क्या है, और उसमें क्या सही गलत है, इसपर एक अलग बहस हो सकती है. लेकिन यह सब तय होने तक क्या हम इस घटना जैसी वेहशियत को सहते रहेंगे? ये हमें सोचना चाहिए.
शनिवार को बरेली से लल्लनटॉप शो होगा, हमारे फेसबुक पेज पर लाइव देखें..