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आ जा मर गया तू?

6 अगस्त 2022

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छी- छी... हे भगवान! ये मैंने क्या किया?
हे मेरे परमात्मा, तू ही कोई पर्दा डाल देता मेरी आंखों पर। ऐसा मंजर तो न देखती मैं!
पर तुझे क्या कहूं, ग़लती तो मेरी ही थी सारी। मैं क्या करूं, मैं खुद भी अपने बस में कहां थी? मैं भी तो बावली हुई घूम रही थी। उतावली कहीं की। बस, अब पड़ गया चैन? अपनी ही आंखों से देख लिया न सब कुछ!
बेटा, मुझे माफ़ कर दे।
लेकिन बाबू, सारी ग़लती मेरी भी तो नहीं है। तू कौन सा बाज आ गया था अपनी करनी के जुनून से। मैं डाल डाल तो तू पात पात!
सच, तेरी हरकतों ने मुझे जासूस तो बना ही दिया था। मैं ख़ुफ़िया तरीके से तेरा हर प्लान जानने को पागल रहती थी।
उस दिन ऐसा ही हुआ।
तू और अर्नेस्ट घर में किसी काम में लगे हुए थे। मैं सौदा- सुलफ़ लेने बाज़ार जा रही थी। मुझे न जाने क्या सूझी, मैं तुम दोनों से झूठ बोल गई कि मैं अपनी सहेली के घर जा रही हूं और शाम को वापस आऊंगी।
इतना ही नहीं बल्कि थोड़ी ही देर में वापस लौट कर आ गई और घर के पास वाले गैरेज में छिप कर बैठ गई। थोड़ी ही देर बाद मैंने तुझे और अर्नेस्ट को घर से बाहर निकल कर जाते देखा। तुम्हारे जाने के बाद मैं घर के भीतर चली आती पर मैंने छिपे- छिपे ही तुम दोनों की कुछ बातें सुन लीं।
हाय, मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ें। सब कुछ अपने कानों से सुन लेने के बाद भी मैं अनजान बनी रही। अर्नेस्ट तुझे कह रहा था कि वो अपने घर जाकर घंटे भर में खाना खाकर वापस आ जाएगा। पर तू उससे बोला- जल्दी नहीं, आराम से आना दो- तीन घंटे में, मैं "उसे" घर बुला कर ला रहा हूं...
हाय दैय्या। कैसी मां हूं मैं! सब कुछ सुन कर भी मेरे कानों में ये पिघलता सीसा क्यों न उतरा। जैसा शरारती तू, वैसी ही शैतान बच्ची मैं बन गई।
उधर तूने आंख मार कर अर्नेस्ट को जैसा इशारा किया मैं फ़ौरन समझ गई कि तू अपनी गर्लफ्रेंड उसी कलमुंही की बात कर रहा है जो सड़क पर आते- जाते चाहे जब मिल जाती है और फिर बीच सड़क पर तुझसे बात करते हुए ये भी नहीं सोचती कि आते- जाते लोग तुम्हें देख कर क्या सोचेंगे? कभी बात करते- करते तेरे बटन से खेलने लगती तो कभी अपनी शरारती अंगुलियां तेरे बालों में फिराने लगती।
हाय दैय्या, चौदह बरस के हम भी हुए थे मगर ऐसी वहशियाना आंधी तो अपने बदन पर मैंने कभी नहीं आने दी। कैसा घूरती थी तुझे, जैसे अभी उठा कर मुंह में रख लेगी।
मुझे पता चल गया था कि तू अर्नेस्ट को देर से आने को कह रहा है और उस लड़की को लाने की बात कर रहा है... मन में क्या है तेरे।
पर मेरी भी तो मति मारी गई थी। मैं बस इतना सोच पाई कि तेरी जासूसी करूं। पता लगाऊं कि तेरा प्लान क्या है।
जब तू लौट कर आ गया और तेरे साथ पीछे -पीछे वो लड़की भी चली आई तो मैं गैरेज के कौने में कबाड़ के पीछे सांस रोक कर बैठी रही।
मैंने आधा घंटा उन्हीं नट्स को कुतर कर चबाने में बिताया जो मैं बाज़ार से ख़रीद कर लाई थी।
और फिर मैं दबे पांव घर चली आई। मैंने सांस रोक कर चुपचाप अपनी चाबी से दरवाज़ा खोल लिया और घंटी नहीं बजाई।
हे ईश्वर, कैसी मां हूं मैं? कौन से गंगाजल से धोऊं निगोड़ी अपनी ये आंखें!


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रचनाएँ
आ जा, मर गया तू?
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यह किताब बारह भाषाओं में प्रकाशित बहुचर्चित उपन्यास "जल तू जलाल तू" के दो पात्रों के मानस संचार पर आधारित है जो मां बेटा हैं। कथानक में मां बेटे को बचाने की कोशिश में दिवंगत हो जाती है। फिर कालांतर में बेटे की मृत्यु होने पर वह उसे एक पत्र लिख कर सारी बात का ब्यौरा देती है और बताती है कि वह उसका इंतजार यहां करती रही है, और अब उसके मर कर यहां आने पर खुश है।
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मैं बरसों से चुप हूं। कुछ नहीं बोली। बोलती भी क्या? न जाने ये सब कैसे हो गया। मैं मर ही गई। मैं यहां परलोक में आ गई। तू वहीं रह गया था दुनिया में। मैं अभागी तो रो भी न सकी। कैसे रोती? दुनिया कहती कि क

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वो कौन थी? वो मेरी मां थी। बताया ना। बहुत मुश्किल जगह में रहती थी। सब सोचेंगे कि ये मुश्किल जगह क्या होती है। जगह या तो ठंडी होती है, या गर्म। ज़्यादा बरसात वाली होती है। पथरीली, बंजर, पहाड़ी, मैदानी.

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फ़िर मेरा जन्म हुआ। मेरे पैदा होने से पहले ही मेरे पिता मेरी मां को छोड़ कर जा चुके थे। कत्ल की आरोपी "खूनी" मां के साथ भला कौन रहता। सिवा मेरे, क्योंकि मैं तो उसके पेट में ही थी। मेरी मां बताती थी कि

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कुछ ही दिनों में मेरी ज़िन्दगी में एक बहुत मज़ेदार दिन आया। मैं आज भी पूरे दिन इस मज़ेदार दिन की बातें चटखारे लेकर करती रह सकती हूं। ये था ही ऐसा। मेरे जीवन का एक अहम दिन। इस दिन मैंने एक साथ सुख और द

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ये समय मेरे लिए तेज़ी से बदलने का था। बहुत सी बातें ऐसी थीं जिनमें मैं अपनी मां के साथ रहते- रहते काफ़ी बड़ी हो गई थी। अब मम्मी के साथ आकर मैं फ़िर से बच्ची बन गई। दूसरी तरफ कई बातें ऐसी भी थीं जिनमें

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तू धीरे- धीरे बड़ा होने लगा और तुझे देख देख कर ज़िन्दगी पर मेरा भरोसा बढ़ने लगा। मैं ख़ुश रहने लगी। ये कितनी अजीब बात है न? इमारतें, सड़कें, पुल, झीलें, झरने, बग़ीचे, बाज़ार, मोटर, रेल, दुकानें, खेत..

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मैं सतर्क हो गई। मैंने मन में ठान लिया कि तुझे इस नासमझी से रोकना ही है। अब मैं तेरी हर छोटी से छोटी बात पर नज़र रखने लगी। तुझे पता न चले, इस बात का ख्याल रखते हुए भी मैं तुझ पर निगाह गढ़ाए रहने लगी।

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कभी - कभी मुझे तुझ पर जबरदस्त गुस्सा आ जाता था। मैं सोचती, आख़िर तेरी मां हूं। तुझसे इतना क्यों डरूं? एक ज़ोर का थप्पड़ रसीद करूं तेरे गाल पर, और कहूं- खबरदार जो ऐसी उल्टी- सीधी बातों में टाइम खराब कि

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बेटा फ़िर एक दिन मैंने सोचा कि तूने तो अपने पिता को भी ढंग से नहीं देखा। तू तो छोटा सा ही था कि वो अचानक हम सब को छोड़ कर इस दुनिया से ही चले गए। तू भी तो मन ही मन उन्हें मिस करता होगा। अपने दूसरे दोस

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किंजान! बेटा बुढ़ापे को तो सब बेकार समझते हैं। है न! युवा लोग तो बूढ़े होना ही नहीं चाहते। उन्हें लगता है कि ये भी क्या कोई ज़िन्दगी है? बाल उड़ जाएं, दांत झड़ जाएं। हाथ कांपें, पैर लड़खड़ाएं। शायद इस

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अब जो हो गया सो तो हो गया। उसे तो मैं बदल नहीं सकती थी। विधाता मुझे जो सज़ा देगा वो तो भुगतूंगी ही। अपराध तो था ही। कहते हैं कि दुनिया में सबसे बड़ा दुःख है अपनी औलाद का मरा मुंह देखना। पर बेटा, दुनिय

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चल बेटा, अब बंद करती हूं। मैं ये तो नहीं कहूंगी कि तू मेरी ज़िंदगी से कोई सीख ले, पर ये ज़रूर कहूंगी कि मेरी ज़िंदगी ने ख़ुद मुझे बहुत सिखाया। वैसे भी, ये बेकार की बातें हैं कि दूसरों के जीवन से हम बह

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