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जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी

22 फरवरी 2022

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महाकवि इकबाल का एक गीत भारत में बहुत प्रचलित है :

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा ।

हम बुलबुले हैं इसके , यह गुलसितां हमारा ॥

किन्तु इकबाल से बहुत पहले यह भाव बंगाल में जन्मा था , जहाँ के महाकवि बंकिमचन्द्र ने भारतमाता की कल्पना , सचमुच ही , माता अथवा महादेवी के रूप में की और देश को वन्दे मातरम् का जागरण-मन्त्र देते हुए उन्होंने बड़े ही ऊँचे धरातल से से एक नई स्तुति का गान किया :

सुजलां सुफलां मलयज शीतलां शस्यश्यामलां मातरम् । वन्दे मातरम् ।

त्रिंशकोटिकंठ-कलकल-निनादकराले !

द्वित्रिंशकोटि-भुजैर्धतकरवाले !

के बोले माँ तुमि अबले !

बहुबलधारिणीम् नमामि तारिणीम ,

रिपुदलवारिणीम् मातरम् । वन्दे मातरम् ॥

तब से बंकिम बाबू की कल्पना सारे देश में फैल गई और सभी कवि विभिन्न भाषाओं में एक ही नाम लिखने लगे , विभिन्न छन्दों में एक ही भवानी की आरती उतारने लगे ।

हिन्दी के स्वर्गीय कवि श्री बदरीनारायण ' प्रेमचन्द ' ने लिखा :

जय-जय भारत भूमि भवानी ।

जा की सुयश पताका जग के दशहूँ दिशि फहरानी ।

जय-जय भारत भूमि भवानी ।

और राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त जी ने तान ली :

नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है ,

सूर्य , चन्द्र युग मुकुट , मेखला रत्नाकर है ।

नदियाँ प्रेम-प्रवाह , फूल , तारे मंडन हैं ,

वन्दी जन खगवृन्द , शेषफन सिंहासन हैं ।

करते अभिषेक पयोद हैं , बलिहारी इस वेश की ,

हे मातृभूमि ! तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की ।

और कश्मीर को देखकर स्वर्गीय पंडित श्रीधर पाठक को भी सन्देह हुआ कि हो न हो , यह स्वर्ग है :

यहीं स्वर्ग सुरलोक , यहीं सुरकानन सुन्दर ,

यहि अमरन को ओक , यहीं कहुँ बसत पुरन्दर ।

किन्तु यह बात क्या है ? ऐसा क्यों है कि लोग अपनी जन्मभूमि के प्रति इतना पक्षपात करते हैं ? और तो और , तुलसीदास जी के रामचन्द्र भी अयोध्या को देखते ही कह उठे :

अति प्रिय मोहि यहाँ के वासी ।

मम धामदा पुरी सुखरासी ।

यह अयोध्या के प्रति , अपनी जन्मभूमि के प्रति , पक्षपात नहीं तो और क्या है ?

कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक कविता है ' दुई बिघा जमीं ' । इस कविता का नायक उपेन्द्र है । उपेन्द्र के पास केवल दो बीघे जमीने थी । गाँव के जमींदार ने वह जमीन नीलाम करवा ली । बेचारा उपेन्द्र निःस्व होकर गाँव से निकल गया और संन्यासी बनकर सारे भारत में भटकता फिरा । किन्तु वह चाहे जहाँ भी जाए , चाहे जितने भी सुहावने दृश्य देखे , वह दो बीघे जमीन उसे कभी भी नहीं भूलती :

भूधरे , सागरे , विजने , नगरे , जखन जेखाने भ्रमि ।

तबू निशिदिन भूलिते पारि नि सेई बिघा दुई जमि ॥

क्या उपेन्द्र की वेदना का केवल यह कारण था कि दो बीघे जमीन से उसकी रोजी चलती थी ? शायद , एक कारण यह भी रहा होगा ; किन्तु इससे बड़ा कारण यह था कि जमीन छूटने से वह ग्राम से निर्वासित हो गया था और परदेश में अपने मन को वह चाहे कितना भी सँभाले , पर अपने गाँव की याद उसके हृदय में टीस जगाए बिना नहीं रह सकती थी । बिछुड़े हुए ग्राम की मादक स्मृतियाँ , आम्र कानन से घिरे हुए छोटे-छोटे बंगीय ग्राम , जहाँ पेड़ों की छाया तले चरवाहे क्रीड़ा करते हैं , जहाँ नदियों में पानी निस्तब्ध और तलविहीन है , जहाँ मधुपूर्ण हृदयवाली वधुएँ जल के घड़े लिये अपने घरों को जा रही हैं , ये बातें कैसे भुलाई जा सकती हैं ? उपेन्द्र ठीक ही तो कहता है कि इन सुधियों को मुख से कहते नहीं बनता , आँखों में आँसू भर आते हैं :

माँ ! बोलिते प्राण करे आनचान ,

चोखे आसे जल भरे ।

फिर भी , बात रह जाती है कि ऐसा होता क्यों है ? बुद्धि से तो यह बात मानी नहीं जा सकती कि भारत के समान दुनिया में और कोई देश नहीं है । लेकिन प्रेम भी क्या कोई बुद्धि से सोचकर करता है ? बुद्धि से सोचने पर तो यही दिखाई देता है कि क्यारियों में फूल की जगह तरकारी लगानी चाहिए । मगर लोग केवल तरकारी ही नहीं लगाते , फूल भी उपजाते हैं । और आप चाहे जो भी समझें , किन्तु उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर रहनेवाले लोग भी अपने देशों की प्रशंसा करते होंगे और प्रशंसा करते-करते यह भी कह बैठते होंगे कि और कौन देश है जहाँ रात और दिन छह-छह महीनों के होते हैं ?

बुद्धि तो यही कहेगी कि संसार के श्रेष्ठ देश वे हैं जहाँ की जलवायु अच्छी है , जहाँ मनुष्य को जीवन-यापन की सारी सुविधाएँ प्राप्त हैं तथा जहाँ मनुष्य मनुष्य का उपकार करने में सुख मानता है । किन्तु हृदय इतना सोचने को नहीं ठहरता । वह तो उसी देश को श्रेष्ठ कहेगा जहाँ वह रम चुका है , जिसकी गोद में उसने अपने सारे संस्कार अर्जित किए हैं ।

मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि मनुष्य की भावनाओं की नींव बचपन के पाँच वर्षों में ही पड़ जाती है । इन वर्षों में वह जहाँ रहता है , वहाँ के दृश्य , वहाँ की आदतें । और वहाँ के रिवाज उसके भीतर घर बना लेते हैं और आगे चलकर वे आसानी से दूर नहीं किए जा सकते । यही देश-प्रेम का मूलाधार है । इसी पर परिवार और समाज की भित्ति ठहरी हुई है । इसी संस्कार की प्रबलता के कारण खेत की जिन पगडंडियों पर हमने बचपन गुजारा है वे पगडंडियाँ हमें पेरिस की गलियों से अधिक प्रिय लगती हैं , और जिस गाँव या नगर में हमने जन्म लिया है उसके सामने लन्दन और मास्को फीके हो जाते हैं । सारी दुनिया की सैर करके आदमी जब अपने देश लौटता है तब उसके मुख से अनायास यह बात निकल पड़ती है कि संसार में चाहे जितनी भी लुभावनी चीजें हों , लेकिन अपने घर के समान सुख तथा सन्तोष और कहीं नहीं है । इसीलिए कहा है-आधी रोटी घर भली , नहीं दूर की चार । तथा :

दिल्ली को छोड़ करके दकन को न जाएँगे ।

गर याँ बहुत न खाएँगे , थोड़ा ही खाएँगे ।

किन्तु जैसे हर चीज की एक सीमा होती है , वैसे ही देश-प्रेम की भी एक सीमा , होनी चाहिए । उदाहरण के लिए , अपने देश से प्रेम करना बहुत अच्छा है , उसे संसार का सिरमौर कहना भी शायद ठीक है , किन्तु अपने देश को सर्वश्रेष्ठ मानकर अन्य देशों से घृणा करना बिलकुल बेजा बात है । राष्ट्रीयता के भीतर जो घृणा की आग है वही दुनिया को एक होने नहीं दे रही है ।

जब कवि यह कहता है कि :

अपनी भाषा है भली , भलो आपुनो देस ।

जो कुछ अपुनो है भलो , यही राष्ट्र सन्देस ।

तब हमें यह बात अच्छी लगती है और लगनी भी चाहिए । लेकिन जब कोई कवि यह कहने लगे कि :

देशन में भारत भलो , हिन्दी भाषन माहिं

जातिन में हिन्दू भलो , और भली कुछ नाहिं ।

तब हमें सावधान हो जाना चाहिए । मेरी माँ अच्छी है , यहाँ तक झगड़ा नहीं है । लेकिन यदि कोई यह कह बैठे कि मेरी माँ अच्छी तथा बाकी लोगों की माताएँ खराब हैं, तो झगड़ा रोका नहीं जा सकता।

असल में , दुनिया जहाँ पहुँच गई है , वहाँ देश-प्रेम अपने आपमें यथेष्ट नहीं माना जाता । अब तो हम देश-प्रेम को बढ़ाकर विश्व-प्रेम की ओर लिये जा रहे हैं । और देशों का चाहे जो विचार हो , किन्तु भारत में गांधी और जवाहरलाल ने जो प्रयोग किया है , उसकी शिक्षा यह है कि भारत से प्रेम करो और खूब करो , लेकिन यह मत भूलो कि भारत संसार का अंशमात्र है । भारत-प्रेम के साथ-साथ हमें विश्व-प्रेम की भी आदत डालनी चाहिए ; घर को प्यार करते-करते हमें बाहर को भी प्यार करना चाहिए ।

देश-प्रेम और विश्व-प्रेम , ये दो परस्पर विरोधी बातें नहीं हैं । पृथ्वी अपनी कील पर भी घूमती है और वह सूर्य के भी चारों ओर घूमती जाती है । तो क्या पृथ्वी की इन दो चालों को हम परस्पर विरोधी कहेंगे ? सच तो यह है कि पृथ्वी जिस दिन अपनी कील पर घूमना छोड़ देगी , उसी दिन वह सूर्य के चारों ओर भी घूम न सकेगी । और कहीं वह सूर्य का ही चक्कर देना छोड़ दे तो कौन कह सकता है कि अपनी कील पर भी वह घूमने लायक रह जाएगी ?

अपने बच्चों को प्यार करो और दूसरों को भी प्यार करना सीखो , यही ऊँचा धर्म है । घर में स्वयं रहो और अतिथियों को भी आने दो , यही मानवीय उदारता है । घर की खिड़कियों को बन्द रखना ठीक नहीं है । बाहर की वायु न आए तो घर का स्वास्थ्य ठीक नहीं रह सकता । संसार को धीरे-धीरे विकसित करके हमें वहाँ ले जाना है जहाँ एक देश का आदमी दूसरे देश को भी अपना समझकर उसकी सेवा कर सके । यही वह स्वप्न है , यही वह कल्पना है जिसे भारत ने गांधी और रवीन्द्र के मुख से कहा और जिसे वह जवाहरलाल के मुख से आज भी दुहराता जा रहा है ।

घरे-घरे मोर घर आछे आमि सेइ घर मरि खूँजिया ,

देशे-देशे मोर देश आछे आमि सेइ देश नीबो जूझिया ।

प्रत्येक घर में मेरा घर है , मैं उसी घर को खोज रहा हूँ । प्रत्येक देश में मेरा देश है , मैं उसी देश को प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रहा हूँ ।

( 1955 ई . )

('वेणुवन' पुस्तक से) 

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रचनाएँ
वेणुवन
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राष्ट्रकवि दिनकर के इस 'वेणुवन' में लेख भी हैं, निबन्ध भी और काल्पनिक संवाद भी। यह चिन्तन-मनन के अभयारण्य की तरह है जिसका आकर्षण और प्रभाव अन्त तक बना रहता है। इसमें शामिल हर पाठ अपने रंग में रँगने की क्षमता रखता है। 'अर्धनारीश्वर' में दिनकर नर-नारी को एक द्रव्य की ढली दो प्रतिमाएँ मानते हुए रेखांकित करते हैं कि 'जिस पुरुष में नारीत्व नहीं, वह अधूरा है और जिस नारी में पुरुषत्व नहीं, वह भी अपूर्ण है।'कबीर साहब से भेंट' काल्पनिक ही सही, लेकिन दिनकर ने अपने तात्कालीन समस्याओं के मद्देनजर अद्भुत और अविस्मरणीय संवाद को रचा है।
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