नित सादर शीश झुकाऊँ मैं,
तेरे अति पावन रजकण को,
मस्तक पर अपने सजाऊ मैं।
हे ममतामयी तेरी गोदी को ,
पाकर ही सब कुछ पाया है ,
तेरी अनूप इस महिमा को ,
अवतार सदा ही गाऊ मैं।
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वैभव अपार तेरे आँचल में ,
सुख कीर्ति का तू समन्दर है ।
महिमा अमित रिद्धि सिद्धि ,
सब निधियां तेरे अंदर है।
तुम सहनशक्ति का मूर्त रूप ,
तुझसे ही आस लगाऊ मैं ।
ऐ जन्म भूमि तेरे चरणों पर ,
नित सादर शीश झुकाऊँ मैं।
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नवतरु पल्लव से आच्छादित,
नित सौरभ लिए महकता है,।
नव फूल कमलदल खिले हुए ,
पोखर में रूप सा सजता हैं ।
तेरे सुरभित इस आंगन में कुछ ,
नूतन फूलो को लगाऊ मैं ।
ऐ जन्मभूमि तेरे चरणों पर,
नित सादर शीश झुकाऊँ मैं।
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चन्दन कुमकुम रोचन दुर्बा ,
मस्तक पर सोहत रोली है।
सुंदरता को भी सुंदर करती ,
ज्यो सोहत दुल्हन डोली है ।
तेरे अपूर्व छबि सिंधु को ,
अवलोकत ही सुख पाऊँ मैं।
ऐ जन्मभूमि तेरे चरणों पर ,
नित सादर शीश झुकाऊ मै।
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शरद ऋतु की शशिकिरण ,
ज्यों चांदनी से भर देती है ।
त्यों तेरे उपकारी सद्गुण,
मन की उत्कंठा हर लेती है ।
अतिआतप से व्याकुल मन को,
आँचल में बैठ बहलाऊँ मैं ।
ऐ जन्मभूमि तेरे चरणों पर ,
नित सादर शीश झुकाऊँ मै।
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आंगन में आसमान के जैसे ,
तारागण आश्रय पाते हैं ।
पर्वत जैसे अपने ऊपर ,
बहु वनस्पति को उगाते है ।
वैसे ही तेरे कुनबे पर ,
धर मनुज शरीर इतराऊ मै।
ऐ जन्मभूमि तेरे चरणों पर ,
नित सादर शीश झुकाऊँ मैं।
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जे पशुतुल्य भये जग में ,
हतभाग्य अधम वो प्राणी है ।
जो उधम मचाता आंगन में ,
करता अपनी मनमानी है।
ऐसे कृतघ्न कुपुत्रो को ,
कुछ ज्ञान का पाठ पढाऊ मैं ।
ऐ जन्मभूमि तेरे चरणों पर ,
नित सादर शीश झुकाऊँ मैं।
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खेले कूदे हम पले बड़े ,
तुम जननी सी प्यार लुटाती रही।
तुझे लाखो कष्ट दिए हमने ,
उसे सहती रही भुलाती रही।
सुकृति मेरा कछु शेष रहे तो,
पुनः आँचल में जन्म पाऊँ मैं ।
ऐ जन्मभूमि तेरे चरणों पर,
नित सादर शीश झुकाऊँ मैं ।
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जारी है ......