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बड़ी भूल हुई इस जीवन में,
शुभ कर्म अलंकृत कर न सके।
बन मानव तो हम यार गए ,
यश भूषण अंग पर धर न सके ।
बेअदब हो गए दुनिया में,
नैतिकता का अवरोध रहा ।
हम भूल गए निज धर्म हमे ,
बस स्वारथ का ही बोध रहा ।
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कौड़ी के खातिर रोज मरा ,
पर धन- ए -शाश्वत भूल गया ।
धनराज जहाँ में बनने हित
औरों को परोस मैं धूल गया
अपना अपनी मेरा मेरी ,
निज खुशियो का ही शोध रहा ,
हम भूल गए निज धर्म हमे बस
स्वारथ का ही बोध रहा ।
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कभी गम में किसी बेगाने के ,
दृगबिन्दु हम छलका न सके ।
गैरो के दुखों पर खूब हँसा,
खुशियों पे गीत हम गा न सके।
ठग लिया जहाँ में अपनों को ,
खुद ठग जाने पर क्रोध रहा ।
हम भूल गए निज धर्म हमे,
बस स्वारथ का ही बोध रहा ।।
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पंक में खुदगर्ज के मेरे कदम ,
पल पल धँसता ही चला गया ।
जो निर्बल मूर्ख धनी जन थे ,
हाथो मेरे सब छला गया ।
नैतिक यश वफ़ा सभाओं में,
सर्वत्र ही मेरा विरोध रहा ।
हम भूल गए निज धर्म हमे ,
बस स्वारथ का ही बोध रहा ।।
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मैं डूबा रहा कुसंगतियां बीच,
कछु मानस पूण्य भी कर न सका ।
लालच की प्रचण्ड हवाओं से,
ये मानवमूल्य ठहर न सका ।
हिंसा रत घोर निशा में भी ,
निज उत्थानों का खोज रहा ।
हम भूल गए निज धर्म हमे ,
बस स्वारथ का ही बोध रहा ।।
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निन्दारत अघमय महफ़िल में ,
कृतघ्नता का ताज पहनाया गया।
कुटिल कामी कपटी लोभी ,
सबका सरताज बनाया गया।
खुश होता रहा इस प्रगति पर ,
ना भले बुरे का प्रबोध रहा ।
हम भूल गए निज धर्म हमे ,
बस स्वारथ का ही बोध रहा ।।
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अपनी अति उच्च श्रृंखलता से मैं,
मनुजता की हद को लांघ गया ।
मानवमूल्यों पर पद रखकर ,
मर्कट सा मार छलांग गया ।
मुझे चलने दो स्वेच्छा पथ पर ,
सब जीव जाति से अनुरोध रहा ,
हम भूल गए निज धर्म हमे ,
हमे बस स्वारथ का ही बोध रहा ।।
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विनम्रता की नेकी शाखाओं को,
कुटिलता की आरी से काट दिया
इस सभ्य समाज के लोगो को ,
जाति सरहद में बांट दिया ।
पाखण्डवाद रूपी शस्त्र मेरा ,
निज लक्ष्यभेद में अमोघ रहा ।
हम भूल गए निज धर्म हमे,
बस स्वारथ का ही बोध रहा ।।
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रामवतार चन्द्राकर