शीर्षक - अपनी अपनी अवकातें
=======================
मौन ही रहकर करता हूं मैं,अर्थपूर्ण गम्भीर इशारे ,
मेरे मन की लब्ज़ है ये जिसे,
टिमटिमा के कहते हैं तारे ।
चिर गगन के खुले पटल पर ,
लिख आया हूँ कुछ बातें,
कौन कहां कब किसको क्या दे ,
अपनी अपनी अवकातें ।।
=======================
हो सागर तुम अपने लिए बस ,
अपना धन रख अपने पास,
मरुभूमि से थककर आया,
बुझा सके न तुम मेरी प्यास।
वही रेत पर तेरे किनारे ,
लिख आया मैं ये बातें ,
कौन कहां कब किसको क्या दे ,
अपनी अपनी अवकातें ।।
======================
सेतुबन्ध सागर का सुनकर ,
रामकाज हित वानर आये ,
नल नील हनुमान आदि ने,
जल में फिर पत्थर तैराये ।
वही एक नन्ही सी गिलहरी ,
छोड़ गई कुछ जज़्बाते,
कौन कहाँ कब किसको क्या दे,
अपनी अपनी अवकातें ।।
======================
अंधे की दरबार मे देखो ,
अंधे बनकर है सब बैठे ,
कहने को अपने ही अपने,
अपनो का कर त्याग है बैठे।
भरी सभा मे पाण्डुवधू की,
आकर कृष्ण है चीर बढ़ाते,
कौन कहाँ कब किसको क्या दे,
अपनी अपनी अवकातें ।।
======================
चौराहे पर खड़ा हुआ कोई,
रह रह कर कुछ बोल रहा था,
होकर के हैरान व्यथित वह,
कुछ दुविधा में डोल रहा था।
कितनो पथिक आये और गुजरे,
राह न कोई उसको बतलाते ,
कौन कहाँ कब किसको क्या दे,
अपनी अपनी अवकातें ।।
======================
शुष्क भूमि को प्लावित करती,
जो जल की बूंदे बरसाकर,
सावन में सागर बरसाते,
श्याम घनेरे बादल आकर ।
दो प्रेमी की विरह वेदना,
तप्त हृदय को और तड़पाते,
कौन कहाँ कब किसको क्या दे,
अपनी अपनी अवकातें ।।
======================
श्रमबिन्दु से सींच के जिसने ,
गुलशन को गुलजार बनाया,
अपने हक के खुशबू बाँटकर,
जिसने वादी को महकाया।
अपने उस करतार के जीवन,
में कुछ है पतझड़ दे जाते ,
कौन कहाँ कब किसको क्या दे,
अपनी अपनी अवकातें ।।
======================
सागर से निकले हुए रत्नों,
को सबने है मिलकर लुटा,
अवनी के आभूषण छिनने,
जन्मरंक बनकर सब छूटा।
स्वयं लुटेरे बनकर बैठे,
दूसरों को हैं सब समझाते,
कौन कहाँ कब किसको क्या दे,
अपनी अपनी अवकातें ।।
======================
स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित
रचनाकार - रामावतार चन्द्राकर
ग्राम - महका
जिला - कबीरधाम
छत्तीसगढ़
9770871110