कल्पना साकार होता दिख रहा है,
आसमाँ फिर साफ होता दिख रहा है।।
छाई थी कुछ काल से जो कालिमा,
आज फिर से धुंध छटता दिख रहा है ।
कल्पना साकार....
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खारमय आँगन में बिखरी थी लताएँ,
कह रही थी अपनी अंतश की व्यथाएँ।
आती जाती दल मधुप की सरसराहट,
कुछ नवीन सन्देश देता दिख रहा है ।
कल्पना साकार....
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धूल धूसरित पंछियो का चहचहाना,
सुप्त तुफाओं का फिर से फैल जाना।
तोड़कर दुश्मन के शस्त्रों को गरजकर,
बादलों का बरष जाना दिख रहा है ।
कल्पना साकार....
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निकरों के व्यवहार का आघात सहते,
संत बन हर कृतघ्नता का घात सहते।
गिरा बेबस कण्ठ कुण्ठित थे जो कब से,
आज फिर से मुखर होता दिख रहा है ।
कल्पना साकार....
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नई किरण से सज रही है शहर फिर से,
ले रही अंगड़ाइयाँ दोपहर फिर से ।
बज रही शहनाइयां और ढोल,ताशे,
आह्लादित देवतागण दिख रहा है ।
कल्पना साकार....
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