है सिलसिला ये कैसा, राह- ए- मजार में ,
खबर नही किसी को, पर चल रहे हैं सब।
मन मे लिए उमंगे न , जाने किस बात की,
पाने को सुख कौन सा , मचल रहे हैं सब ।
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फैला के वो अशांति, पाने चले हैं शांति ,
जो कर रहे हैं क्रांति , घर मे समाज मे ।
खुद को कहे वेदांती , फैलाये वही भ्रांति,
दुनिया है जिसको जानती, गृहकलह काज में।
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मन मे है कलुषताई , तनिक भी न मनुषाई,
हैवानियत है छाई , नजरो में जिसके देखो ।
है बन के वही साई , मानवता को ठगे भाई,
जग में है भ्रम फैलाई ,जरा खोल आंखे लेखों।
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अधरों में प्रीति छाई , कपट हृदय में समाई,
पावक है वो लगाई , मदमस्त शांती वन में।
फिर भी न चैन आई , पीछे छुरी हैं चलाई,
कालनेमि बन के छाई, प्रेम भक्ति के आंगन में।
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पाखण्डता की है हद , नही कोई भी है सरहद,
वो अपने बढ़ाने कद , गुमराह सबको करते ।
है कौन सी वो मकसद , पाने को जिसकी है जद,
पीकर के कपट का मद , है सबको छला करते ।
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हृदय में नही प्रीति , वह कौन सी है नीति,
करके वो राजनीति, अपनो को उसने बांटा।
फिर चल गई वो रीति , नित बन रहे हैं भीति,
है सबकि आपबीती , है बो गए वो कांटा ।
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खुद को जरा सम्हालो , नई ज्ञान दीप जला लो,
इंसानियत को तुम बचा , लो इन क्रूर दानवो से ।
नई रीति तुम बना लो , प्रेम भूषण अब सजा लो,
मनभेद को अब टालो , मानव का मानवों से।
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अवतार हो तुम्ह राम का , है समय ये संग्राम का,
है मर्यादाएं नाम का , कर सायक अब सम्हालो।
है शोर त्राहिमाम का, इन अधम दुष्टो के धाम का,
संधानो सर अंजाम का, तरकश को अब सजा लो ।
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रचना = कुर्मि रामावतार चन्द्राकर