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झलकता शब्द से भी है ,
हमारा आचरण हरदम ,
बयां आंखे भी करती है ,
कभी छुपकर कभी हो नम ।
हमारा मौन रहना भी,
बहुत कुछ बोल जाता है ,
कभी भेद खोल जाती है ,
ये लड़खड़ाती हुई कदम ।।
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महकती जिस तरह से है,
सुमन घुलकर हवाओं में ,
बिखरती चांद की रौनक,
प्रफुल्लित हो दिशाओं में ।
विचलित कभी शुभ कर्म से ,
'अवतार ' हम न हो ,
सिखाता है हमे चन्दन ,
सदा महको फिजाओं में ।।
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परिणाम से लदी हुई उस ,
आम्र की डाली से सीखो ,
छलक पैमाने से अधरों में ,
लिपटती हुई प्याली से सीखो ।
जियो संस्कारमय हरपल ,
चलो नेकी के राह पर ,
भुलाकर द्वेष को झूमती ,
लताएँ मतवाली से सीखो ।।
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तृणों को करती है धारण ,
महीधर श्रृंग पर जैसे ,
पृथक कलकंठ कर देती,
है यूँ नीर क्षीर को जैसे ।
निज दोष हटा, गुणों को ,
अपनाता ही चला चल ,
जगत व्यवहार में निखरो,
निखरता है कमल जैसे ।।
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रखो संयम कि हर नारी,
को जननी तुल्य हम जाने ,
न हो अपमान कभी भूलकर ,
की देवी हम उन्हें माने ।
कभी आये विपत्ति,
तुम बहन का भाई बन जाओ ,
रखे हम शील लक्ष्मण सा,
नूपुर को ही जो पहचाने ।।
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बनो सुत तो कभी तुम,
राम परशुराम बन जाओ ,
सुखों को ताक पर रखकर ,
धरम का मार्ग अपनाओ ।
पिता, पति ,भाई बनकर ,
रिश्तों का सम्मान करो तुम ,
बड़ो का आदर ,माँ का दूध ,
पिता का कर्ज निभाओ ।
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रहो गम्भीर,उद्द्धि सा ,
न हिय में ज्वार उठने दो ,
रखो काबू की मन में द्वेष का ,
अंकुर न फूटने दो ।
नही अनहित न कुटिलता,
न कपट को ही अपनाओ ,
चरित्रवान बनो, शील का ,
सागर न सूखने दो ।
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गुणगाहक बनो, तज दो ,
हमेशा अहम को अपने ,
करो उदगार दुनियां का,
कभी खुद को न दो छपने ।
सहो अपमान भी हंसकर,
फुलाकर मुंह न बैठो,
प्रफुल्लित गात हो हरपल ,
और देखो सौम्यमय सपने ।
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