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सौगन्ध मुझे करनी होगी,
की भूल, भूल से भी न हो ,
अब शेष बचे इस जीवन मे ,
अपमान किसी का भी न हो ।
हो दुर्गम अगम खार मय पथ,
ना पीछे कदम हटाऊंगा ,
मंजिल की ओर अपनी ,
चलता ही जाऊंगा ।।
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मेरु के शिखर से लेकर,
उन थार के रेगिस्तानों से,
अवनी अम्बर के आंचल से,
उन दण्डक वन वीरानों से ।
सागर के अन्तरहृद से मैं ,
दसचारी रतन ढूंढ लाऊंगा ,
मंजिल की ओर अपनी ,
चलता ही जाऊंगा ।।
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भुजदण्ड उठाकर राघव ने ,
कानन में जो बात कहा ,
नींद नारी भोजन को त्याग,
सौमित्र ने जो सन्ताप सहा ।
अंगद के पाव सा मैं भी अब ,
शुभ संकल्पों को जमाउंगा ,
मंजिल की ओर अपनी ,
चलता ही जाऊंगा।।
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नवपुंज दिवाकर रश्मि से ,
निज दुर्गुण को नहलाकर के ,
मनोविकार की निकरों को,
ध्रुवनन्दा से मैं धोकर के ।
अभिअंतर में सद्भावों का,
दुर्भिक्ष नही पड़ने दूंगा ,
मंजिल की ओर अपनी ,
चलता ही जाऊंगा ।।
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मैं नीलमणि अवलम्बन पर ,
ध्रुव सा अटल विश्वास रखूं ,
विकारों के षणयंत्रो पर ,
प्रह्लाद सा संयम , आस रखूँ ।
अब कालचक्र आघातों पर,
मैं मलय का लेप लगाऊंगा ,
मंजिल की ओर अपनी ,
चलता ही जाऊंगा ।।
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चल रहे तिमिरमय राहों में ,
उन पथिको का मैं दीप बनूं ,
खजूर नही बरगद सा बनूँ ,
स्वातिबून्दों मय सीप बनूँ ।
इन महाभूतों की शक्ति से ,
पामर को आंख दिखाऊंगा ,
मंजिल की ओर अपनी ,
चलता ही जाऊंगा ।।
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जीवन की इस समरांगण में ,
निर्वेद अस्र संधान करूँ ,
अरि शस्त्र प्रहार करे जब भी,
सदचिदानंद का ध्यान धरूँ ।
"अवतार "न मीत न बैर कोई ,
सिद्धांत यही अपनाऊंगा ,
मंजिल की ओर अपनी ,
चलता ही जाऊंगा ।।
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भूल गया था जो इन ,
उच्च आदर्शो के प्रतिमानों को ,
करके अटल "प्रतिज्ञा " मैं ,
अब राह नया अपनाऊंगा ।
दया धर्म करुणा मैत्री,
गुण भाव सदा धारण करके ,
मंजिल की ओर अपनी ,
चलता ही जाऊंगा ।।
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