खुद को बादशाह समझे तुम ,
औरो को निज दास लिखा ।
जिनके बलबूते पर तुमने ,
ऊँचे पद को पाया है ,
ऐसे कर्मठ जनो का तुमने ,
फीकी स्याही से ह्रास लिखा ।।
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बैठ के सिंहासन पर तुमने,
खुद को देवदूत है माना ,
करते रहे मनमानी हरदम ,
अपनो को भी नही पहचाना।
मानवता की मर्यादा का ,
कभी भी नही खयाल किया ,
बढ़ा के रोटी की लाचारी,
सीने पर बंदूक है ताना ।।
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समाजवादी गणतंत्र विचारें ,
पहचाने जिस भारत की ,
एक उद्देश्य एक ही नागरिकता,
थाती है जिस भारत की।
मूल धर्म परमार्थ पर भी,
कभी तुमने न विचार किया ,
सुरसा मुख रूपी कुरुक्षेत्र में ,
भेंट चढ़ा दी पारथ की ।।
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लोगो की आवाज दबाकर ,
सबको अपना हुकुम सुनाया,
छीन लिया मरने का हक,
और जीने पर भी टैक्स लगाया।
संघर्षवाद के सिध्दांतो को,
फिर तुमने ललकारा और ,
दुसरो का हक लूटने वाले ,
बुरी आदत से बाज न आया।।
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हाथ में फोड़े पांव में छाले,
आंखों में अश्रु की धारा ,
रोटी की एक टुकड़े खातिर,
बिलख रहा परिवार है सारा।
छप्पन भोग लगाते छक रहे,
बैठ के अपने कोठे पर ,
भूखे बच्चे देखे फिर भी,
द्रवित हुआ नही हृदय तुम्हारा।।
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धिक - धिक तेरे वैभव सारे ,
महल दुमहले के शानो को ,
तेरे यश में चारण भाट के,
मुख से गाये हुए गानो को ।
चैन की बंशी नीरो -सा तू ,
बाजार रहा अपनी ही धुन में ,
धन के बल पर खूब समेटा,
चिड़ियों के हक के दानों को।।
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मजदूरों की बस्ती में ,
जरा कुछ दिन गुजार के देखो ,
रहो कुछ दिन अभावो में और ,
भूखे रात गुजार के देखो।
खेतो में अन्न उगते कैसे ,
और होती है मजदूरी क्या ,
चंद रुपइयों के खातिर ,
दुसरो से हाथ पसार के देखो ।।
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सर्वाधिकार सुरक्षित - रामावतार चन्द्राकर
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