'स्त्री क्या पहने, कैसी दिखे, किससे बात करे' जैसी तयशुदा पुरुषवादी व्यवस्था में स्त्री की इच्छाओं और चेतना पर निषेध और वर्जनाएं भारी हैं और जब कोई स्त्री स्वतंत्र चेतना तथा आर्थिक आत्मनिर्भरता के साथ ज़िन्दगी जीना चाहती है तो इसी व्यवस्था के ताने-बाने उसके लिए नित नयी परीक्षा तैयार रखते हैं.
पिंक' एक फिल्म नहीं, एक गहन सामयिक विचार है जो पुरुषवादी समाज में स्त्री के अस्तित्व को नये मायने देता है.
फिल्म की तीन सहेलियां आप या मैं कोई भी हो सकती हैं जो बिना कोई गलती किये भी असह्य मानसिक यंत्रणा और अवसाद से होकर गुजरती हैं.उनका कसूर बस इतना है कि वे सहज भाव से कुछ लड़कों से मिल कर उनके आग्रह पर ड्रिंक्स ले लेती हैं.अच्छे रसूख वाले लड़के उन लड़कियों को ‘ईज़ी ‘ या अवेलेबल मानकर जबरन सेक्स करना चाहते हैं और खुद को बचाने की कोशिश में एक लड़की लड़के के सिर पर बोतल दे मारती है. रसूखवाले लड़के के माथे पर गहरी चोट आती है और उससे भी ज़्यादा आहत होता है उसका पौरुष जो लड़कियों से प्रतिकार में किसी भी स्तर तक गिर जाने को तैयारहै. राहत यही है कि यहाँ न्यायपालिका स्त्रियों के प्रति सहृदय और उदार है.
यहाँ विरोधी पक्ष की दलीलें स्त्रियों के चरित्र हनन से लेकर उनका मनोबल तोड़ने तक की भरपूर कोशिशें करती हैं और यह सब किसी गांव-देहात की खाप पंचायत या मौलवी-उलेमा के फतवे की शक्ल में नहीं होता बल्कि देश की राजधानी की एक अदालत में होता है. देश वही है, समाज वही है और सोच भी वही है जो राजबीर सिंह से भरी अदालत में कहलवाती है-'ऐसी' लड़कियों के साथ'ऐसा' ही होना चाहिए.
दिल पर चोट लगती है, एक हूक सी उठती है- 'ऐसी' 'कैसी'लड़कियां? यानि आप पुरुष हैं तो खुदमुख्तार हैं और स्त्रियां चाहे वे आपकी मां-बहन-बेटी ही क्यों न हों, उनके जीने के नियमऔर शर्तें आप तय करेंगे. यह कैसा समाज है जो स्त्रियों को घुटन और शोषण के सिवा कुछ देना ही नहीं जानता और उनके 'सेफ्टीमैन्युअल' के नाम पर कभी उनका ड्रेस कोड तैयार करता है तो कभी उनसे मोबाइल जैसी सुविधा तक छीन लेना चाहता है.
विकासशील देशों में आर्थिक उदारीकरण ने अनेक विसंगतियों के साथ एक वरदान भी दिया कि स्त्रियां आर्थिक स्वावलंबन के लिए प्रेरित हुईं और धीरे-धीरे उन्होंने अपने वज़ूद और विचार को व्यक्त करना आरम्भ किया.स्त्रीत्व के वज़ूद और सत्ता ने पारंपरिक समाज की चूलें हिला दीं.मोटे तौर पर यह स्त्री के दोयम दर्ज़े से फर्स्ट ग्रेड सिटीजन बनने की चाहत का सफर है जो अभी जारी है.फिल्म का कथानक यही है.
यह एक बेहद खूबसूरत फिल्म है जिसकी पटकथा कसी हुई है, खास तौरपर कोर्टरूम में बहस के दृश्य आपको झकझोर कर रख देते हैं. फिल्म अमिताभ बच्चन के कविता पाठ के साथ ख़त्म होती है.
जो तुझसे लिपटी बेड़ियाँ समझ न इनको वस्त्र तू
ये बेड़ियाँ निकालकर बना ले इनको शस्त्र तू
तू खुद कीखोज में निकल तू किसलिए हताश है
तू चल तेरे वजूद की समय को भी तलाश है
पिंक झिंझोड़ने वाला सिनेमा है. एक गंभीर सामाजिक विमर्श है सिनेमा की शक्ल में.खास तौर पर पुरुषों के लिए. अगर आप संवेदनशील हैं तो हाल से बाहर आप मनोरंजन नहीं, मंथन करते निकलते हैं. कैसे देखते आये हैं अब तक अपने आस पास की महिलाओं को, सहकर्मियों के बारे में क्या क्या अटकलें लगाते आये हैं,दोस्तों से हंसकर बात करती बेटी के बारे में क्या-क्या शक दिमाग में आते हैं, कोई लड़की मुस्कुरा कर देख ले तो कैसी-कैसी कल्पना एंआकार लेने लगती हैं दिमाग में-पिंक वो सारे सवाल आपके सामने रख देती है और आपको आईना दिखाती है.
ये फिल्म तो तमाम स्कूल, कॉलेज, पंचायत, पांच सितारा क्लबों में दिखाई जानी चाहिए, जहाँ लड़के-लड़कियां या स्त्री-पुरुष किसी वजह से एक साथ जुटते हों.
क्योंकि,
ये मनोहर लाल खट्टर जैसे नेताओं के लिए भी है, मुज़फ्फरनगर की खाप पंचायतों के लिए भी है, जेएनयू में खुलेपन के नाम पर यौन शोषण के आरोपियों के लिए भी है, सफेदपोश अफसरों और मिडिल क्लास मातहतों के लिए भी -सब दकियानूसी सोच वालों के लिए , नार्यस्तु पूज्यन्ते की तोतारटंत के साथ-साथ लड़कियों पर एसिड फेंकने वाले दोहरे चेहरे वालों के लिए - सोचना आपको ही है कि आप कहाँ खड़े हैं, कहाँ खड़े होना चाहते हैं.