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कविता

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नदी ही जीवन है जीवन ही नदी है दोनों अप्रत्याशित से एक ही जैसे ऊंचे पहाड़ों से निकल नीचे बहती नदी दिखलाती गिरना स्वभाव उठना नहीं आसान कल कल बहती दुनिया की प्यास बुझाती खेतों को सींचती  तब

रूह कभी मरती नहीं अग्नि में जलती नहीं अस्त्रों से कटती नहीं वायु से सूखती नहीं फिर मृतक की भांति क्यों चुप रहती देखती अत्याचार तांडव मौत का रूह चुप नहीं टोकती दिन रात दिखाती सच्ची राह समझाती धर्म का म

आज लहरा रहे हस कर दिखा रहे नयी सुंदर कोपलों से रंगबिरंगी कलियों से लदे इस पेड़ ने एक वक्त देखा था आफतों के मौसम में अपने भी साथ छोड़ गये पत्तियों से अलग गुमसुम चुपचाप सा खङा रहा उम्मीद को पकङ वक्त बदल

भरपूर अंधेरे में टिमटिमाते छोटे दिये दुनिया में फैला अंधेरा भरपूर तुम कितना रोशन करोगे होकर चूर थककर आखिर शांत ही होना है दिया कुछ जिद्दी सा अपनी धुन का पक्का जलता रहा लौ भर कुछ तो उजाला करता रहा हो

बीत गयी निशा पर जागा कौन क्या तुम जगा रहे मुझको समझते खुदको जागृत नहीं, पूर्ण सत्य नहीं है अभी भी सो रहे लोभ, मोह, तृष्णा की नींद में जग गये फिर यह चीत्कार कैसा धर्म के नाम पर इंसान काट रहा इंसान को म

चांदनी छा गयी निशा भी आ गयी महफिल सजी तारों की दुनिया को लुभा गयी रात की रानी का इंतजार खत्म हुआ फूल हरसिंगार के निकले कलियों से कुछ ऋतु शीत का आज असर हो रहा निकल चंद्रिका चांद से आकाश को सजा रही आका

आजाद कब हुआ मैं कई बार अग्नि क्रोध की दग्ध कर गयी मन को आजाद कब हुआ मैं लोभ के बंधन भी कहाॅ टूट पाये मुझसे आजाद कब हुआ मैं मोह को प्रेम समझता भूल करता रहा हूं आजाद कब हुआ मैं कुछ कुरीतियों से जकङा

सूरज हर रोज सुबह आ जाता अपने समय पर कभी नागा नहीं कोई न छुट्टी इतनी कर्तव्य निष्ठा इतना समर्पण इतना अनुशासन अनेकों बात जेहन में कहीं सूरज भी आशिक तो नहीं अपने प्रेमी की याद में इश्क में तङपता कोई इंत

रात भर छिपा मुंह याद में सूरज के दुनिया में न देख किसी को सपनों में भी प्रियतम को सुबह की पहली किरण सूरजमुखी को अहसास दिलाती प्रियतम का आगमन हुआ सपनों से जगकर खङा हुआ सूरजमुखी प्रिय को देखता कुछ कहना

कुदाल से न टूटने बाली मजबूत पर्वत श्रंखलांऐं धीरे धीरे कुछ टूटतीं पानी के प्रवाह में नदियों से बहकर मैदानों तक पहुंचे पर्वत पाषाण के टुकड़े बिखर रहे किनारे नदियों के एक गौरवशाली इतिहास के स्वामी आज रे

ज्ञानियों में मूर्धन्य देवगुरु के शिष्य ज्ञान के आचार्य क्या सत्य ज्ञानी कुछ गलतफहमी से घिरे ज्ञान तो प्रेम है प्रेम ही जीवन प्रेम ही पूजा प्रेम ही उच्चता सखा श्याम के भेजा श्याम ने ज्ञान बांटने हेत

अक्सर मन लगता सोचने कुछ अलग हटकर दिन आखरी जिंदगी का होता कब श्वास बंद हो जाये शरीर शांत हो जाये दिल न धङके वही ना। पर दिख जाते कई जिंदा भी ढो रहे जीवन को दिन जिंदगी का आखिरी लिया देख जिन्होंने जिंदा र

खुद की ताकत पर इतराकर पद का वैभव दिखलाकर ऐश्वर्य से जग को झुकाकर रूप पर इठलाकर कोई सो गया चुपचाप मुलायम गद्दों पर सोने का आदी सो रहा भूमि नीचे बिना हिले डुले इस कब्र में चुपचाप सैकङों हैक्टेयर भूमि का

खुद की ताकत पर इतराकर पद का वैभव दिखलाकर ऐश्वर्य से जग को झुकाकर रूप पर इठलाकर कोई सो गया चुपचाप मुलायम गद्दों पर सोने का आदी सो रहा भूमि नीचे बिना हिले डुले इस कब्र में चुपचाप सैकङों हैक्टेयर भूमि का

पुष्प एक बगिया का मुस्करा रहा था खुद की जमीन खुद की डाली जानी पहचानी हवा जाने पहचाने लोग साथ अपनों का क्या कमी खुशियों में एक रोज तोड़ लिया माली ने गुलदस्ता बनाने को किसी को खुश करने को राजा या अधिकार

आज राधा रूठी है प्रभु क्रीङा की याद पवित्र वृन्दावन धाम निकट राधा बल्लभ रहतीं विधवा नारि कहाती आनंदी माँ पूजती प्रभु श्याम रख वात्सल्य भाव सुत बना घनश्याम ज्यों हो नंदरानि आज राधा रूठी है रहतीं भावलो

अमर गाथा प्रेम की एक थी लैला शहजादी बगदाद की खलीफा की लाङली पली ऐशोआराम में हर ख्वाहिश को रखती मुट्ठी में क्या नामुमकिन खलीफा की प्यारी शहजादी को एक था मजनू अनाथ और असहाय पा गया पनाह खलीफा के महल म

मैं रवि अनंत आकाश का उदित होते ही फैला रहा प्रकाश खुद तपकर भी तिमिर को हराता जग को हसाता पुष्पों को खिलाता खगों की चहचहाहट कृषकों की मेहनत उल्लास का द्योतक मेरा खुद तप जाना अंगारों का साथ कै

आज निःशव्द हो जाऊं दिल की बात पी जाऊं बातें अनेकों उमङती मन भीतर मन सागर में डुबा दूं उनको कहीं भीतर गहराई पर छिपाकर मोतियों को लूं छिपा जग से यह चांद बङा बेदर्दी है क्या जिद ठान बैठा है चंद्र

जल और मानव मन कुछ एक जैसे नीचे गिरते जाते उठना नहीं आसान हैंडपंप एक साधक का पर्याय नीचे से मन को उच्चता प्रदान करता विचारों में उच्चता उच्च समाज का निर्माण सम्मान नारियों का कमजोर पर दया जीव में ई

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