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कविता

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जी रहा हूँ सिर्फ तेरे प्यार के लिएमैं कहा हूँकिसी के इंतज़ार के लिएवक़्त ने दिया ही नहींमुझे कोई मौक़ामैं तो रह गया बस इनकार के लिएजब भी चाहातुझ से कहनालब न खुले मेरेइज़हार के लिएपल से बनी सदिया

हर आँख पर पर्दा इस कदर पड़ गया हैंजो देखना थाज़मानें में आया वो भी हमारी अक़्ल से छुप गया हैंअब क्या उम्मीद और क्या प्यार यहाँसब कुछ दाँव पर लगा है यारवफ़ा की बात ही क्यासब बेवफाई का हुनर ज

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वक़्त की शाख़ों सेफूल झरते ही रहे,हालातो के रंगमेरे लिए बदलते रहे,जब भी कोशिश की हमनें तोरास्ते मे अपने ही छलते रहेकिस-किस से गिला करेंअपने रंजो गम का ये दोस्तज़िंदगी ही मोम थीहर वक़्त बस पिघलते रहे।अजय न

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मेरी नई कविता#हर_हर_तिरंगा====================हर-हर तिरंगा घर-घर तिरंगा लहराएंगे फहराएंगे।मां भारती के मान को हम मां भारती के सम्मान को हम जन-जन तक पहुंचाएंगे। हर-हर तिरंगा ,,,,,,च

दिवस अंतिम मम जीवन का कब होगा, कहाॅ होगा किन हालातों में बीमारी से दुर्घटना से लगता उस दिन सांस घुटने लगेंगीं धङकन कमजोर शरीर असहाय वाणी बंद मन का क्या ठिकाना क्या सोच रहा होगा नहीं, नहीं, नहीं सच तो

रण के बाद संहार ही नहीं होता सृजन भी होता है बहुधा सृजन का आरंभ विनाश से पतन बुराई का अंत कुरीतियों का स्थापना धर्म की कब हुई बिना रण के रण चाहे रामायण का था या महाभारत का रण अनिवार्य था अपरिहार्य था

अक्सर ख्वाहिशें तकलीफ दे जाती हैं दिलों में चुभ जाती हैं नयनों में अश्रु लाती हैं ख्वाहिश थी आसमां की जमीन के साथ चलने की उसे प्रेम करने की क्षितिज को सत्य करने की ख्वाहिश आसमान की पूरी न होनी थीं दूर

मैं एक टूटा सपना हूं याद नहीं देखा किसने क्यों देख भला वह भूल गया सपनों की भीड़ लगी थी किस सपने में वह उलझ गया मैं एक टूटा सपना हूं अनाथालय की सीड़ी पर अर्धरात्रि में छोड़ गया जो माॅ के प्यार को तरसा

जिन खुशियों की तलाश में दुखों से भागते रहे कुछ अलग आश्चर्य की बात हमारी खुशियां आराम कर रहीं उन्हीं दुखों में यह धोखा ही था खुशियां तो दुखों से लिपटी थीं हम समझे दोनों अलग अलग सत्य कब है फूल के साथ का

वह विशाल वृक्ष सड़क के किनारे खड़ा तपस्या करता तपस्वी सम अब नहीं दिखा कितनी ही बार गर्मियों में हो बैहाल बिताये कुछ पल उस वृक्ष के नीचे अनुभूति कुछ वही जैसे वह वृक्ष मेरे पिता हो रोकते तीक्ष

वो लड़की और वो औरत वो लड़की जो खेलती थी गुड़ियों से गुड़ियों के बाल बनाती कपड़े तैयार करती अपनी खुद जायी गुड़िया की बन माॅ औरत बन गयी वो औरत जो जिंदा गुड्डे गुड़ियों की माॅ है उसी तरह सम्हालती बच्चों

नदी ही जीवन है जीवन ही नदी है दोनों अप्रत्याशित से एक ही जैसे ऊंचे पहाड़ों से निकल नीचे बहती नदी दिखलाती गिरना स्वभाव उठना नहीं आसान कल कल बहती दुनिया की प्यास बुझाती खेतों को सींचती  तब

रूह कभी मरती नहीं अग्नि में जलती नहीं अस्त्रों से कटती नहीं वायु से सूखती नहीं फिर मृतक की भांति क्यों चुप रहती देखती अत्याचार तांडव मौत का रूह चुप नहीं टोकती दिन रात दिखाती सच्ची राह समझाती धर्म का म

आज लहरा रहे हस कर दिखा रहे नयी सुंदर कोपलों से रंगबिरंगी कलियों से लदे इस पेड़ ने एक वक्त देखा था आफतों के मौसम में अपने भी साथ छोड़ गये पत्तियों से अलग गुमसुम चुपचाप सा खङा रहा उम्मीद को पकङ वक्त बदल

भरपूर अंधेरे में टिमटिमाते छोटे दिये दुनिया में फैला अंधेरा भरपूर तुम कितना रोशन करोगे होकर चूर थककर आखिर शांत ही होना है दिया कुछ जिद्दी सा अपनी धुन का पक्का जलता रहा लौ भर कुछ तो उजाला करता रहा हो

बीत गयी निशा पर जागा कौन क्या तुम जगा रहे मुझको समझते खुदको जागृत नहीं, पूर्ण सत्य नहीं है अभी भी सो रहे लोभ, मोह, तृष्णा की नींद में जग गये फिर यह चीत्कार कैसा धर्म के नाम पर इंसान काट रहा इंसान को म

चांदनी छा गयी निशा भी आ गयी महफिल सजी तारों की दुनिया को लुभा गयी रात की रानी का इंतजार खत्म हुआ फूल हरसिंगार के निकले कलियों से कुछ ऋतु शीत का आज असर हो रहा निकल चंद्रिका चांद से आकाश को सजा रही आका

आजाद कब हुआ मैं कई बार अग्नि क्रोध की दग्ध कर गयी मन को आजाद कब हुआ मैं लोभ के बंधन भी कहाॅ टूट पाये मुझसे आजाद कब हुआ मैं मोह को प्रेम समझता भूल करता रहा हूं आजाद कब हुआ मैं कुछ कुरीतियों से जकङा

सूरज हर रोज सुबह आ जाता अपने समय पर कभी नागा नहीं कोई न छुट्टी इतनी कर्तव्य निष्ठा इतना समर्पण इतना अनुशासन अनेकों बात जेहन में कहीं सूरज भी आशिक तो नहीं अपने प्रेमी की याद में इश्क में तङपता कोई इंत

रात भर छिपा मुंह याद में सूरज के दुनिया में न देख किसी को सपनों में भी प्रियतम को सुबह की पहली किरण सूरजमुखी को अहसास दिलाती प्रियतम का आगमन हुआ सपनों से जगकर खङा हुआ सूरजमुखी प्रिय को देखता कुछ कहना

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