कुछ काव्य जो मेरे मन में बस गए | उन्हें संगृहीत करने का एक छोटा सा प्रयास ...
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<p>“घर की याद” कविता के कवि भवानी प्रसाद मिश्र जी हैं। कवि ने सन 1942 के “भारत छोड़ो आंदोलन” में बढ़
<p>वृक्ष हों भले खड़े,<br> <br> हों घने हों बड़े,<br> <br> एक पत्र छाँह भी,<br> <br> माँग मत, माँग म
<p>माथे में सेंदूर पर छोटी<br> दो बिंदी चमचम-सी,<br> पपनी पर आँसू की बूँदें<br> मोती-सी, शबनम-सी।</p
<p>मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे, <br> सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे, <br> रुपयों की कलद
<p>चाह नहीं, मैं सुरबाला के <br> गहनों में गूँथा जाऊँ,<br> चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध<br> प्यारी
<p>नर हो, न निराश करो मन को<br> कुछ काम करो, कुछ काम करो<br> जग में रह कर कुछ नाम करो</p> <p><br> यह
<p>हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती<br> स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती<br> 'अमर
<p>बीती विभावरी जाग री!<br> <br> अम्बर पनघट में डुबो रही<br> तारा-घट ऊषा नागरी!<br> <br> खग-कुल कुल-
<p>हम पंछी उन्मुक्त गगन के<br> <br> पिंजरबद्ध न गा पाएँगे,<br> <br> कनक-तीलियों से टकराकर<br> <br>