''शादी करके फंस गया यार ,
अच्छा खासा था कुंवारा .''
भले ही इस गाने को सुनकर हंसी आये किन्तु ये पंक्तियाँ आदमी की उस व्यथा का चित्रण करने को पर्याप्त हैं जो उसे शादी के बाद मिलती है .आज तक सभी शादी के बाद नारी के ही दुखों का रोना रोते आये हैं किन्तु क्या कभी गौर किया उस विपदा का जो आदमी के गले शादी के बाद पड़ती है .माँ और पत्नी के बीच फंसा पुरुष न रो सकता है और न हंस सकता है .एक तरफ माँ होती है जो अपने हाथ से अपने बेटे की नकेल निकलने देना नहीं चाहती और एक तरफ पत्नी होती है जो अपने पति पर अपना एक छत्र राज्य चाहती है .
आम तौर पर भी यह देखने में आया है कि लड़के की शादी को तब तक के लिए टाल दिया जाता है जब तक उसकी बहनों का ब्याह न हो जाये क्योंकि एक धारणा यह भी प्रबल है कि लड़का शादी के बाद पत्नी के काबू में हो जाता है और फिर वह घर का कुछ नहीं करता जबकि जब अपनी लड़की को ब्याहते हैं तो ये चाहते हैं कि लड़का अपनी पत्नी का मतलब उनकी बेटी का हर तरह से ख्याल रखे और उसे कोई भी कष्ट न होने दे ,किन्तु बहु के मामले में उनकी सोच दूसरे की बेटी होने के कारण परिवर्तित हो जाती है कोई या यूँ कहूं कि एक माँ जो कि सास भी होती है यह नहीं सोचती कि शादी के बाद उसकी अपनी भी एक गृहस्थी है और जिसके बहुत से दायित्व होते हैं जिन्हें पूरा करने का एकमात्र फ़र्ज़ उसी का होता है .
और दूसरी ओर जो उसकी पत्नी आती है वह अपने भाई से तो यह चाहती है कि वह मम्मी पापा का पूरा ख्याल रखे और भाई की पत्नी अर्थात उसकी भाभी भी मेरे मम्मी पापा को अपने मम्मी पापा की तरह समझें और उनकी सेवा सुश्रुषा में कोई कोताही न बरतें और स्वयं अपने सास ससुर को वह दर्जा नहीं दे पाती ,ऐसे में माँ और पत्नी की वर्चस्व की जंग में पिस्ता है आदमी ,जो करे तो बुरा और न करे तो बुरा ,जिसे भुगतते हुए उसे कहना ही पड़ता है -
'' जब से हुई है शादी आंसूं बहा रहा हूँ ,
मुसीबत गले पड़ी है उसको निभा रहा हूँ .''
शालिनी कौशिक
एडवोकेट