विधि भारती -शोध पत्रिका में प्रकाशित
भारतीय संविधान की राजभाषा हिंदी है और देश में हिंदी भाषी राज्यों या क्षेत्रों की बहुलता है भारत में निम्न राज्य हिंदी भाषी क्षेत्रों में आते हैं -बिहार ,छत्तीसगढ़ ,दिल्ली ,हरियाणा ,हिमाचल प्रदेश ,झारखण्ड ,मध्य-प्रदेश ,राजस्थान ,उत्तर प्रदेश व् उत्तराखंड ,इसी के साथ-साथ भारतीय संविधान का अनुच्छेद १४ सभी नागरिकों को समानता का अधिकार भी देता है जिसके चलते भारत का हर नागरिक समान है ,उसके साथ धार्मिक आधार पर कोई भी भेदभाव नहीं किया जाता है किन्तु भारत के संविधान का यह मौलिक अधिकार सभी धर्मों के व्यक्तिगत मामलों में मौन हैं और इसी लिए धर्मों के अंदरूनी भेदभाव पर इसका कोई प्रभाव नहीं है ,हिन्दू हो या मुस्लिम ,इन धर्मों में व्यक्तिगत रूप से कौनसी जाति को ऊँचा समझा जाता है और कौनसी जाति को नीचे इन पर हमारा संविधान मौन है ,ऐसे ही इन धर्मों में नारी की क्या स्थिति है इस पर भी संविधान का कोई अंकुश नहीं है वह केवल स्वतन्त्र रूप से नारी को अधिकार देकर इन धर्मों के बाहर उसकी स्थिति सुदृढ़ करने की कोशिश कर सकता है धर्मों को यह आदेश नहीं दे सकता कि ये भी उसे निरपेक्ष रूप से बराबर माने और इसी को देखते हुए सरकार द्वारा पुरानी परम्पराओं में ही आज तक उलझे हुए मुस्लिम समाज में निकृष्ट स्तर तक पहुंची महिला की स्थिति को सुधारने के लिए सबसे पहले इस समाज की तीन तलाक की प्रथा पर चोट पहुंचाकर उसकी स्थिति को सँभालने की चेष्टा की जा रही है ,
भारत में ज्यादातर मुस्लिम हनफ़ी या सुन्नी हैं ,इसी के साथ-साथ मुस्लिम कानून की एक और संस्था शिया को मानने वाले मुस्लिम भी भारत में निवास करते हैं ,मुस्लिम शासन काल में इस्लामी कानून ही भारत का कानून था और व्यैक्तिक कानून को छोड़कर इसके सभी प्रावधान जैसे संविदा विधि ,दाण्डिक विधि ,अपकृत्य विधि आदि हिन्दुओं व् मुसलमानों पर एक समान लागू होते थे ,मुग़ल शासन काल में भारत में हनफ़ी इस्लामी विधि लागू रही जो ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के दौरान क्रमशः समाप्त हुई ,यद्यपि इस्लामिक दाण्डिक विधि कुछ आगे तक चली किन्तु 1960 में भारतीय दंड संहिता के अधिनियम के साथ समाप्त हो गयी ,
भारत में मुसलमानो के संपत्ति अधिकार सूचीबद्ध नहीं हैं ,वह मुस्लिम कानून की दो संस्थाओं के तहत आते हैं -हनफ़ी और शिया ,हनफ़ी संस्था केवल उन रिश्तेदारों को वारिस के रूप में मानती है जिनका पुरुष के माध्यम से मृतक से सम्बन्ध होता है ,इसमें बेटे की बेटी ,बेटे का बेटा और माता-पिता आते हैं ,दूसरी ओर शिया संस्था ऐसा कोई भेदभाव नहीं करती इसका मतलब है जिन वारिसों का मृतक से सम्बन्ध महिलाओं के जरिये है ,उन्हें भी अपना लिया जाता है ,ऐसे ही सुन्नी संप्रदाय की मलिकी विचार पद्धति की किताब-अल-मुवता में मलिकी विचारधारा के सिद्धांत मिलते हैं ,इस विचार पद्धति की मुख्य विशेषता यह है कि परिवार के मुखिया की शक्ति स्त्रियों और बच्चों पर अत्यधिक होती है केवल इसी विचार पद्धति के अंतर्गत विवाहिता स्त्री अपनी संपत्ति की निरपेक्ष स्वामिनी नहीं होती है और पति की अनुमति के बिना अपनी संपत्ति का विक्रय दान नहीं कर सकती है किन्तु यह विचार पद्धति भारत में प्रचलित ही नहीं है इसलिए हिंदी भाषी क्षेत्रों की मुस्लिम महिलाओं के अधिकार इससे प्रभावित नहीं होते क्योंकि यह उत्तरी अफ्रीका ,मोरक्को स्पेन में प्रचलित है ,
शिया और सुन्नी विधि दोनों में ही महिलाओं के अधिकार पृथक-पृथक हैं इसका अध्ययन हम निम्न शीर्षकों के अंतर्गत कर सकते हैं -
1 -मातृत्व -शिया विधि के अंतर्गत कुवांरी महिला द्वारा उत्पन्न संतान माँ विहीन मानी जाती है परन्तु विवाहित महिला यदि परपुरुषगमन द्वारा संतान उत्पन्न करती है तो वह उस संतान की माँ मानी जाएगी जबकि सुन्नी विधि के अंतर्गत जिस महिला को बच्चा पैदा होता है वह उसकी माँ होती है और कोई संतान माँ विहीन नहीं मानी जाती ,
2 -वलायत -सुन्नी विधि के अंतर्गत लड़के की सात वर्ष की आयु पूरी होने और लड़की के व्यस्क होने तक माँ अभिरक्षा की हक़दार होती है जबकि शिया विधि के अंतर्गत लड़के के दो साल का होने और लड़की के सात साल का होने तक माँ उनकी वली रहती है ,
3 -वृद्धि [औल ]का सिद्धांत -सुन्नी विधि के अंतर्गत वृद्धि [औल ] का सिद्धांत जिसके बाद यदि हिस्सेदार का कुल योग इकाई से अधिक होता है तो प्रत्येक हिस्सेदारों का अंश कम हो जाता है सभी हिस्सेदारों पर समान रूप से लागू होता है परन्तु शिया विधि के अंतर्गत वृद्धि [औल ] का सिद्धांत केवल पुत्रियों और बहनों के प्रति ही लागू होता है अर्थात यदि हिस्सेदारों का कुल योग इकाई से अधिक होता है तो केवल पुत्रियों व् बहनों का हिस्सा कम होता है ,
मुस्लिम कानून के तहत विरासत के कानून काफी सख्त हैं ,उनकी विचारधारा के मुताबिक महिलाओं को पुरुष से आधी तवज्जो मिलती है इसलिए बेटो को बेटी के हिस्से से दोगना मिलता है लेकिन बेटी को जो भी संपत्ति विरासत में मिलेगी ,उस पर उसका पूर्ण अधिकार होगा ,अगर कोई भाई नहीं है तो उसे आधा हिस्सा मिलेगा और वह अपनी मर्जी से कानूनी तौर पर उसका प्रबंधन ,नियंत्रण और निपटारा कर सकती है ,
वह उन लोगों से भी गिफ्ट्स ले सकती है जिनसे वह संपत्ति हासिल करेगी ,यह विरोधाभासी है क्योंकि वह पुरुष के हिस्से का केवल एक तिहाई हिस्सा पा सकती है लेकिन बावजूद इसके बिना किसी परेशानी के तोहफे ले सकती है ,जब तक बेटी की शादी नहीं होती उसे माता-पिता के घर में रहने और सहायता पाने का अधिकार है लेकिन शादी के बाद की स्थिति भिन्न है ,
मुस्लिम विधि में विवाह एक संस्था है ,यह संस्था मानव सभ्यता का आधार है ,कुरान में लिखा है कि ''हमने पुरुषों को स्त्रियों पर हाकिम [अधिकारी ]बनाकर भेजा है '' दूसरे शब्दों में मुस्लिम विधि में पत्नी की अधीनता स्वीकार की गयी है ,महत्वपूर्ण वाद अब्दुल कदीर बनाम सलीमन [1846 ] 8 इला० 149 में न्यायाधीश महमूद और न्यायाधीश मित्तर ने सबरुन्निशा के वाद में मुस्लिम विवाह को संविदात्मक दायित्व के रूप में बल दिया है और मुस्लिम विवाह को विक्रय संविदा के समान बताया है और यही विक्रय संविदा मुस्लिम विधि में महिला की स्थिति को न्यायाधीश महमूद के शब्दों में कुछ यूँ व्यक्त करती है -
''मुस्लिम विधि में मेहर वह धन है अथवा वह संपत्ति है जो पति द्वारा पत्नी को शादी के प्रतिफल के रूप में दिया जाता है अथवा देने का वचन दिया जाता है ,''
इसी प्रकार न्यायाधीश मित्तर ने सबरुन्निशा के मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय का निर्णय देते हुए कहा कि -
''मुस्लिम विधि में विवाह विक्रय संविदा के समान एक सिविल संविदा है विक्रय में मूल्य के बदले संपत्ति का अंतरण होता है ,विवाह की संविदा में पत्नी संपत्ति और मेहर मूल्य होता है ,''
इस प्रकार यदि हम एकतरफा रूप से देखें तो इस्लाम में महिला की स्थिति को संपत्ति समान ही पाएंगे किन्तु इसे पूर्ण स्थिति नहीं कहा जा सकता है क्योंकि जैसे कि संविदा में पक्षकारों की स्वतंत्र इच्छा व् सहमति आवश्यक है वैसे ही मुस्लिम विधि में विवाह के पक्षकारों की भी स्वतंत्र इच्छा व् सहमति आवश्यक है और इसलिए यहाँ स्त्री भी स्वतंत्र इच्छा व् सहमति के प्रयोग द्वारा ही विवाह संस्था में प्रवेश का अधिकार रखती है जैसे कि ''हसन बनाम कुट्टी जेनेवा '' में कहा गया कि विवाह में सहमति आवश्यक तत्व है और पिता की अनुमति व्यस्क पुत्री की सहमति नहीं ले सकती ,'' ऐसे ही ''एस मुहीदुद्दीन बनाम खतीजा बाई 1939 ,41 बम्बई लॉ रिपोर्टर 1020 के वाद में एक शाफ़ई [व्यस्क ] लड़की की सहमति के विरुद्ध पिता के द्वारा कार्यान्वित विवाह मान्य नहीं धारण किया गया ,इसी प्रकार ''अहमद उन्निसा बेगम बनाम अकबर शाह ए-आई-आर 1942 पेशावर 42 में कहा गया कि जहाँ विवाह के लिए सहमति न प्राप्त की गयी हो ,स्त्री की इच्छा के विरुद्ध विवाह की पूर्णावस्था विवाह को मान्य नहीं बना देगी ,''
भारत में बाल विवाह अवरोध अधिनियम 1929 के द्वारा पुरुषों का 21 वर्ष से कम की अवस्था में और स्त्रियों का 18 वर्ष से कम की अवस्था में विवाह अपराध है किन्तु मुस्लिम विधि में उपर्युक्त अधिनियम के किसी प्रावधान का उल्लंघन होने पर भी विवाह शून्य नहीं होता है और विशेष रूप से हिंदी भाषी राज्य उत्तर प्रदेश में इसका खुला उल्लंघन होता है क्योंकि शिया स्त्री के मामले में वयस्कता की आयु मासिक धर्म के साथ साथ शुरू हो जाती है और प्रत्यक्ष साक्ष्य के अभाव में पूर्वधारणा यह होती है कि मासिक धर्म 9 और 10 साल के उम्र में शुरू हो जाता है इसलिए यहाँ संविदा के नियम स्वतंत्र इच्छा व् सहमति का उल्लंघन होता है क्योंकि 9 या 10 साल की लड़की स्वतंत्र इच्छा व् सहमति नहीं रख सकती इसलिए यहाँ पिता की अनुमति से उसका विवाह होता है और इसे मान्य बनाने के लिए वयस्कता का विकल्प रखा गया है किन्तु यहाँ भी मुस्लिम महिला के साथ भेदभाव रखा गया है , मुल्ला ,आप सिट 14 वां संस्करण 1955 p 117 में मुल्ला का यह मत है कि वयस्कता का विकल्प यदि स्त्री द्वारा यौवनावस्था प्राप्त करते ही तुरंत अथवा शादी का ज्ञान न हो सकने की दशा में शादी की सूचना मिलते ही प्रयोग न किया गया तब यह अधिकार समाप्त हो जाता है लेकिन पुरुष के लिए यह अधिकार तब तक रहता है जब तक कि वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विवाह का अनुसमर्थन नहीं कर देता है उदाहरण के लिए सम्भोग द्वारा या मेहर का भुगतान करके ,
धर्म में भिन्नता को लेकर भी मुस्लिम महिला भेदभाव की शिकार है ,वह किसी ऐसे पुरुष से विवाह नहीं कर सकती जो मुसलमान न हो ,चाहे वह किताबी हो या नहीं ,दैवी ग्रन्थ पर आधारित धर्म के अनुयायी पुरुष को 'किताबी 'और स्त्री को 'किताबिया ' कहते हैं जबकि सुन्नी मुसलमान पुरुष गैर मुस्लिम स्त्री से यदि वह किताबिया अर्थात ईसाई या यहूदी हो विवाह कर सकता है ,
अब आते हैं तलाक के मुद्दे पर जो वर्तमान में सर्वाधिक विवाद का विषय है वह है तीन तलाक ,यूँ तलाक कहने का अधिकार मुस्लिम विधि में पुरुष को ही है और मुस्लिम विवाह संविदा है ये तो इन विधिवेत्ताओं की राय से व् न्यायालयों के निर्णयों से स्पष्ट हो चुका है पर मजाक यहाँ ये है कि यहाँ बराबरी की बात कहकर भी बराबरी कहाँ दिखाई गयी है .मुस्लिम विधि में जब निकाह के वक़्त प्रस्ताव व् स्वीकृति को महत्व दिया गया तो तलाक के समय केवल मर्द को ही तलाक कहने का अधिकार क्यों दिया गया .संविदा तो जब करने का अधिकार दोनों का है तो तोड़ने का अधिकार भी तो दोनों को ही मिलना चाहिए था लेकिन इनका तलाक के सम्बन्ध में कानून महिला व् पुरुष में भेद करता है और पुरुषों को अधिकार ज्यादा देता है और ये तीन तलाक जिस कानून के अन्तर्गत दिया जाता है वह है -तलाक -उल-बिद्दत -" तलाक - उल - बिददत को तलाक - उल - बैन के नाम से भी जाना जाता है. यह तलाक का निंदित या पापमय रूप है. विधि की कठोरता से बचने के लिए तलाक की यह अनियमित रीति ओमेदिया लोगों ने हिज्रा की दूसरी शताब्दी में जारी की थी. शाफई और हनफी विधियां तलाक - उल - बिददत को मान्यता देती हैं यघपि वे उसे पापमय समझते हैं. शिया और मलिकी विधियां तलाक के इस रूप को मान्यता ही नहीं देती. तलाक की यह रीति नीचे लिखी बातों की अपेक्षा करती है -
1- एक ही तुहर के दौरान किये गये तीन उच्चारण, चाहे ये उच्चारण एक ही वाक्य में हों-"जैसे - मैं तुम्हें तीन बार तलाक देता हूं. " अथवा चाहे ये उच्चारण तीन वाक्यों में हों जैसे -" मैं तुम्हें तलाक देता हूं, मैं तुम्हें तलाक देता हूं, मैं तुम्हें तलाक देता हूं. "
2-एक ही तुहर के दौरान किया गया एक ही उच्चारण, जिससे रद्द न हो सकने वाला विवाह विच्छेद का आशय साफ प्रकट हो :जैसे" मैं तुम्हें रद्द न हो सकने वाला तलाक देता हूं."
पति की मृत्यु या तलाक होने पर भी सभी प्रयोजनों के लिए मुस्लिम विवाह का तुरंत विच्छेद नहीं हो जाता विच्छेद हो जाने पर भी वह कुछ प्रयोजनों के लिए इद्दत की अवधि तक प्रभावी रहता है ,''इद्दत ''वह अवधि है जिसमे जिस स्त्री के विवाह का पति की मृत्यु या तलाक द्वारा विच्छेद हो गया हो ,उसे एकांत में रहना और दूसरे पुरुष से विवाह न करना अनिवार्य है ,मुस्लिम विधि में जब कोई विवाह विवाह-विच्छेद या पति की मृत्यु के कारण विघटित हो जाता है तो स्त्री कुछ समय तक पुनः विवाह नहीं कर सकती है ,इस निश्चित समय को ''इद्दत '' कहा जाता है ,इद्दत का उद्देशय यह निश्चित करना होता है कि क्या स्त्री पति से गर्भवती है अथवा नहीं ,जिससे कि मृत्यु अथवा विवाह-विच्छेद के पश्चात् उत्पन्न हुई संतान की पैतृकता में भ्रम न पैदा हो ,साथ ही तलाक के मामले में इद्दत अवधि (करीब तीन महीने) के बाद रखरखाव का शुल्क उसके माता-पिता के पास वापस चला जाता है। लेकिन अगर महिला के बच्चे उसका सपोर्ट करने की स्थिति में हैं तो जिम्मेदारी उन पर आ जाती है।
पति की मृत्यु के मामले में विधवा को (अगर बच्चे हैं) एक आठवां हिस्सा मिलेगा। अगर बच्चे नहीं हैं तो एक चौथाई हिस्सा मिलेगा। वहीं अगर मृतक की एक से ज्यादा पत्नियां हैं तो हिस्सा एक-सोलहवें तक घट सकता है। पत्नी के रूप एक मुस्लिम महिला अपने पति से निर्वाह व्यय प्राप्त करने की अधिकारिणी होती है ,और शादी कायम रहते हुए चाहे मेहर के सम्बन्ध में कोई अनुबंध न भी किया गया हो उसे अपने पति के साथ रहने का अधिकार होता है और अपने अनन्य उपयोग के लिए एक कक्ष का ,उसे निषिद्ध आस्तियों के भीतर के अपने सम्बन्धियों के यहाँ जाने और उनका उसके यहाँ आने का अधिकार होता है इस प्रकार एक मुस्लिम महिला के पत्नी के रूप में निम्न अधिकार हैं -
1 -पति की सामर्थ्य को ध्यान में रखते हुए उससे निर्वाह व्यय की प्राप्ति ,यदि पत्नी आज्ञाकारिणी और व्यस्क है तो उसे इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता ,भले ही वह अपनी संपत्ति से अपना निर्वाह कर सकती हो ,यह अधिकार उसे तब तक प्राप्त रहता है जब तक कि विवाह-विच्छेद नहीं होता है ,
२ -एक से अधिक पत्नियां होने पर सभी से समान व्यवहार तथा पृथक शयन कक्ष ,
3 -अपना मेहर प्राप्त करने और भुगतान न किये जाने पर समागम से इंकार का अधिकार ,
4 -वर्ष में कम से कम एक बार अपने निषिद्ध आस्तियों के भीतर के सम्बन्धियों के यहाँ जाने और उनके उसके यहाँ आने और उसके माता -पिता और पूर्व पति से उत्पन्न बच्चों के उचित अंतराल से उसके यहाँ आने का अधिकार ,
५ -यदि पति उसी मकान में कोई रखैल उसके साथ रखे तो पति के साथ रहने से इंकार करने और ऐसे इंकार के होते हुए निर्वाह की अभ्यर्थना करने का अधिकार ,
6 -वह एक कक्ष के उपयोग के लिए ,जिसमे वह अपने पति के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को आने न दे ,अधिकृत हो जाती है ,
लेकिन ऐसा नहीं है कि ये अधिकार पत्नी को निर्बाध रूप से प्राप्त हो इन्हें पाने के लिए पत्नी के रूप में उन्हें कुछ कर्तव्यों को भी निभाना होगा जो कि निम्न हैं -
1 -उसके लिए दाम्पत्य निष्ठां का दृढ़ता से पालन आवश्यक है ,
2 -वह अपने स्वास्थ्य ,शिष्टता और स्थान का ध्यान रखते हुए पति को अपने साथ समागम करने देने के लिए बाध्य है ,
3 -वह पति की उचित आज्ञाओं का पालन करने के लिए बाध्य है ,
4 -पक्षकारों की सामाजिक स्थिति और स्थानीय प्रथा के अनुसार पर्दा करना पत्नी का कर्तव्य है ,
5 -वह मृत्यु या विवाह-विच्छेद होने पर इद्दत का पालन करने के लिए बाध्य है ,
और इन्हें लेकर मुस्लिम विधि का ''तीन तलाक '' मुस्लिम महिलाओं के लिए जीवन में एक नश्तर के समान है ,नाग के काटने के समान है जिसका काटा कभी पानी नहीं मांगता ,साइनाइड जहर के समान है जिसका क्या स्वाद है उसे खाने वाला व्यक्ति कागज पेन्सिल लेकर लिखने की इच्छा लेकर उसे चाहकर भी नहीं लिख पाता,ऐसा विनाशकारी प्रभाव रखने वाला शब्द ''तीन तलाक'' मुस्लिम महिलाओं के जीवन की त्रासदी है .अच्छी खासी चलती शादी-शुदा ज़िन्दगी एक क्षण में तहस-नहस हो जाती है .पति का तलाक-तलाक-तलाक शब्द का उच्चारण पत्नी के सुखी खुशहाल जीवन का अंत कर जाता है और कहीं कोई हाथ मदद को नहीं आ पाता क्योंकि मुस्लिम शरीयत कानून पति को ये इज़ाज़त देता है .कानून का जो मजाक मुस्लिम शरीयत कानून में उड़ाया गया है ऐसा किसी भी अन्य धर्म में नज़र नहीं आता .बराबरी का अधिकार देने की बात कर मुस्लिम धर्म में महिलाओं को निम्नतम स्तर पर उतार दिया गया है .मुस्लिम महिलाओं को मिले हुए मेहर के अधिकार की चर्चा उनके पुरुषों की बराबरी के रूप में की जाती है फिर निकाह के समय '' क़ुबूल है '' भी महिलाओं की ताकत के रूप में वर्णित किया जाता है किन्तु यदि हम गहनता से इन दोनों पहलुओं का विश्लेषण करें तो ये दोनों ही इसे संविदा का रूप दे देते हैं .और मुस्लिम विधि के बड़े बड़े जानकार इस धर्म की विवाह संस्था को संविदा का ही नाम देते हैं .बेली के सार-संग्रह में विवाह की परिभाषा स्त्री-पुरुष के समागम को वैध बनाने और संतान उत्पन्न करने के प्रयोजन के लिए की गयी संविदा के रूप में की गयी है .[BAILLIE : डाइजेस्ट ,पेज ९४.]
आमतौर पर इस सबको ही लेकर लोगों की धारणा यह है कि इस्लाम में महिलाओं को अत्यधिक अत्याचार और शोषण सहना पड़ता है – लेकिन क्या हकीक़त में ऐसा है ? क्या लाखों की तादाद में मुसलमान इतने दमनकारी हैं या फिर ये गलत धारणाएं पक्षपाती मीडिया ने पैदा की हैं ? इस्लाम को लेकर यह गलतफहमी है और फैलाई जाती है कि इस्लाम में औरत को कमतर समझा जाता है। सच्चाई इसके उलट है। हम इस्लाम का अध्ययन करें तो पता चलता है कि इस्लाम ने महिला को चौदह सौ साल पहले वह मुकाम दिया है जो आज के कानून दां भी उसे नहीं दे पाए। इस्लाम लोकतान्त्रिक मज़हब है और इसमें औरतों को बराबरी के जितने अधिकार दिए गए हैं उतने किसी भी धर्म में नहीं हैं।इस्लाम के अलावा कोई ऐसा दीन, धर्म या जीवन दर्शन नहीं है जिसने औरत को उसका पूरा जायज़ अधिकार और न्याय दिया हो और उसके नारित्व की सुरक्षा की हो। इंसानी हैसियत से दायित्वों और कर्तव्यों के मामले में औरत मर्द के बराबर है। माँ की हैसियत ये बताई गयी है कि उसके पैरों तले जन्नत है।
1930 में, एनी बेसेंट ने कहा, “ईसाई इंग्लैंड में संपत्ति में महिला के अधिकार को केवल बीस वर्ष पहले ही मान्यता दी गई है, जबकि इस्लाम में हमेशा से इस अधिकार को दिया गया है। यह कहना बेहद गलत है कि इस्लाम उपदेश देता है कि महिलाओं में कोई आत्मा नहीं है ।” (जीवन और मोहम्मद की शिक्षाएं, 1932)
डॉक्टर लिसा (अमेरिकी नव मुस्लिम महिला)मैंने तो जिस धर्म (इस्लाम) को स्वीकार किया है वह स्त्री को पुरुष से अधिक अधिकार देता है।
डॉक्टर लिसा एक अमेरिकी महिला डॉक्टर हैं, लगभग तीस साल पहले मुसलमान हुई हैं और मुबल्लिगा हैं, यह इस्लाम में महिलाओं के अधिकार के संबंध में लगने वाले आरोपों का दान्दान शिकन जवाब देने के संबंध में काफी प्रसिद्ध हैं।
उनके एक व्याख्यान के अंत में उनसे सवाल किया गया कि –
“आप ने एक ऐसा धर्म क्यों स्वीकार किया जो औरत को मर्द से कम अधिकार देता है”?
*उन्होंने जवाब में कहा कि –
“मैंने तो जिस धर्म को स्वीकार किया है वह स्त्री को पुरुष से अधिक अधिकार देता है”,
पूछने वाले ने पूछा वो कैसे?
डॉक्टर साहिबा ने कहा “सिर्फ दो उदाहरण से समझ लीजिए”,
– पहली यह कि “इस्लाम ने मुझे चिंता आजीविका से मुक्त रखा है यह मेरे पति की जिम्मेदारी है कि वह मेरे सारे खर्च पूरे करे”, चिंता आजीविका से बड़ा कोई सांसारिक बोझ नहीं और अल्लाह हम महिलाओं को इससे पूरी तरह से मुक्ति रखा है, शादी से पहले यह हमारे पिता की जिम्मेदारी है और शादी के बाद हमारे पति की।
– दूसरा उदाहरण यह है कि “अगर मेरी संपत्ति में निवेश या संपत्ति आदि हो तो इस्लाम कहता है कि यह सिर्फ तुम्हारा है तुम्हारे पति का इसमें कोई हिस्सा नहीं है”,
जबकि मेरे पति को इस्लाम कहता है कि “जो आप ने कमा और बचा रखा है यह सिर्फ तुम्हारा बल्कि तुम्हारी पत्नी का भी है अगर आप ने उसका यह हक़ अदा न किया तो मैं तुम्हें देख लूंगा।”
इस्लाम में औरतों को निम्न अधिकार भी दिए गए हैं -
1 -इस्लाम में औरतों को संपत्ति का अधिकार -औरत को बेटी के रूप में पिता की जायदाद और बीवी के रूप में पति की जायदाद का हिस्सेदार बनाया गया। यानी उसे साढ़े चौदह सौ साल पहले ही संपत्ति में अधिकार दे दिया गया।
2 -औरतों को अपनी पहचान बनाये रखने का सम्मान-इस्लाम ने औरतों को अपनी पहचान बनाये रखने का भी सम्मान किया है इसलिए जब अन्य महज़ब में शादी के बाद नाम बदलने की इज़ाज़त है ,इस्लाम में औरत शादी के बाद भी अपना नाम बरक़रार रख सकती है। उन्होंने कहा कि अगर इसके बाद भी लोग सोचते हैं कि हम लोग अपनी औरतों को दबा कर रखते हैं तो हमें इस पर सोचना चाहिए।
3 -तलाक़ (तलाक़े खुला) लेने का अधिकार-इस्लाम के पहले दुखी और कष्टपूर्ण वैवाहिक जीवन को समाप्त करके पति पत्नी के अलग अलग सुखी जीवन जीने का कोई वैज्ञानिक उपाय किसी मज़हब में नहीं था। जहाँ मर्द को बुरी औरत से निजात के लिए तलाक का अधिकार दिया है। वही औरत को भी “खुला” का अधिकार प्रदान किया गया है। जिसका प्रयोग कर वो ग़लत मर्द से छुटकारा पाने का आसान रास्ता दे दिया गया।इसलिए यह कहना गलत है कि इस्लाम में औरतों के साथ बराबरी नहीं है इस्लाम में औरतों को तलाके खुला लेने का अधिकार देकर उसकी स्थिति को मर्द से बराबरी पर लाया गया है ,
4 -समान पुरस्कार और बराबर जवाबदेही– इस्लाम में आदमी और औरत एक ही अल्लाह को मानते हैं, उसी की इबादत करते हैं, एक ही किताब पर ईमान लाते हैं | अल्लाह सभी इंसानों को एक जैसी कसौटी पर तौलता है वह भेदभाव नहीं करता।
अगर हम दूसरे मज़हबों से इस्लाम की तुलना करेंगे तब हम देखेंगे की इस्लाम दोनों लिंगों के बीच भी न्याय करता है | उदाहरण के लिए इस्लाम इस बात को ख़ारिज करता है कि माँ हव्वा हराम पेड़ से फल तोड़ कर खाने के लिए ज्यादा ज़िम्मेदार हैं बजाय हज़रत आदम के | इस्लाम के मुताबिक माँ हव्वा और हज़रत आदम दोनों ने गुनाह किया | जिसके लिए दोनों को सजा मिली | जब दोनों को अपने किये पर पछतावा हुआ और उन्होंने माफ़ी मांगी, तब दोनों को माफ़ कर दिया गया।
5 -तलाकशुदा का विवाह- समाज मे हर व्यक्ति को बिना शादी के नही रहना चाहिए/ अगर तलाक़ हो गयी है तो फ़ौरन अच्छे साथी चुन कर सुखमय जीवन बिताना चाहिए/तलाकशुदा और विधवा महिलाओं को सम्मान देकर पुरुषों को उनसे विवाह करने के लिए प्रेरित किया है , सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम हज़रत मुहम्मद ने ऐसी तलाकशुदा और विधवा महिलाओं से खुद विवाह करके अपने मानने वालों को दिखाया कि देखो मैं कर रहा हूँ , तुम भी करो , मैं सम्मान और हक दे रहा हूँ तुम भी दो , मुसलमानों के लिए विधवा और तलाकशुदा औरतों से विवाह करना हुजूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की एक सुन्नत पूरी करना है जो बहुत पुण्य का काम है।
6 -वर चुनने का अधिकार-वर चुनने के मामले में इस्लाम ने स्त्री को यह अधिकार दिया है कि वह किसी के विवाह प्रस्ताव को स्वेच्छा से स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है। इस्लामी कानून के अनुसार किसी स्त्री का विवाह उसकी स्वीकृति के बिना या उसकी मर्जी के विरुद्ध नहीं किया जा सकता। बीवी के रूप में भी इस्लाम औरत को इज्जत और अच्छा ओहदा देता है। कोई पुरुष कितना अच्छा है, इसका मापदंड इस्लाम ने उसकी पत्नी को बना दिया है। इस्लाम कहता है अच्छा पुरुष वहीं है जो अपनी पत्नी के लिए अच्छा है। यानी इंसान के अच्छे होने का मापदंड उसकी हमसफर है।
7 - स्वतंत्र बिज़्नेस करने का अधिकार-इस्लाम ने महिलाओं को बहुत से अधिकार दिए हैं। जिनमें प्रमुख हैं, जन्म से लेकर जवानी तक अच्छी परवरिश का हक़, शिक्षा और प्रशिक्षण का अधिकार, शादी ब्याह अपनी व्यक्तिगत सहमति से करने का अधिकार और पति के साथ साझेदारी में या निजी व्यवसाय करने का अधिकार, नौकरी करने का आधिकार, बच्चे जब तक जवान नहीं हो जाते (विशेषकर लड़कियां) और किसी वजह से पति और पुत्र की सम्पत्ति में वारिस होने का अधिकार। इसलिए वो खेती, व्यापार, उद्योग या नौकरी करके आमदनी कर सकती हैं और इस तरह होने वाली आय पर सिर्फ और सिर्फ उस औरत का ही अधिकार होगा। औरत को भी हक़ है। (पति से अलग होना का अधिकार)
8 -और माता के रूप में - अगर बच्चे अपने पैरों पर खड़ें हैं तो मुस्लिम माता को उनसे विरासत पाने का हक है। अगर बेटे की मौत हो जाए और उसके बच्चे भी हैं तो मृतक की मां को उसकी संपत्ति का एक-छठवां हिस्सा मिलेगा। लेकिन अगर पोते-पोतियां नहीं हैं तो महिला को एक-तिहाई हिस्सा मिलेगा।
9 -मेहर : यह वो पैसा या संपत्ति होती है, जो शादी के वक्त पत्नी अपने पति से पाने की हकदार होती है। मेहर दो तरह की होती हैं-तुरंत और देरी से। पहले मामले में पत्नी को शादी के तुरंत बाद पैसा दे दिया जाता है। जबकि दूसरे में शादी खत्म होने के बाद मिलता है, चाहे वह तलाक के कारण हो या पति की मौत की वजह से।
10 -वसीयत: एक मुस्लिम पुरुष या औरत कुल संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा ही वसीयत के जरिए दे सकता/सकती है। अगर संपत्ति में कोई वारिस नहीं है तो पत्नी को वसीयत के जरिए ज्यादा राशि मिल सकती है।
11 -हिबा: मुस्लिम कानून के तहत किसी भी तरह की संपत्ति को तोहफे के तौर पर दिया जा सकता है। एक गिफ्ट को वैध बनाने के लिए उसे तोहफा बनाने की घोषणा होनी चाहिए और रिसीवर द्वारा उसे स्वीकार किया जाना चाहिए।
इस्लाम के अनुसार मर्द और औरतें दोनों समाज का हिस्सा हैं और दोनों को मिलकर समाज के कल्याण के लिए काम करना है इसलिए संतुष्ट होकर किसी स्थान पर उठना बैठना भी ज़रूरी हो। जब कोई महान उद्देश्य की प्राप्ति मकसद हो या किसी भलाई और नेक काम को अंजाम देने में औरत और मर्द दोनों के संयुक्त संघर्ष और आपसी सहयोग की ज़रूरत हो। लेकिन इस मेल जोल की भी इस्लाम (शरीयत) ने एक सीमा बताई है।
इसके साथ साथ कानून भी अब इनकी स्थिति को लेकर जागरूक है और इनके लिए लाभदायक कुछ प्रावधान कर इनकी वित्तीय व् पारिवारिक स्थिति सुदृढ़ करने के उपाय किये जा रहे हैं -
1 -वयस्कता के विकल्प के सम्बन्ध में आधुनिक विधि [मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम 1939 ] ने वयस्कता के विकल्प की पुरानी विधि को काफी सीमा तक बदल दिया है ,इससे पहले पिता या पितामह द्वारा संविदाकृत विवाह ,अति विशिष्ट परिस्थितियों के सिवा ,वयस्कता प्राप्त कर लेने पर अवयस्क द्वारा अस्वीकृत नहीं किया जा सकता था परन्तु अब यह मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाहिता स्त्री के विषय में सन 1939 के उक्त अधिनियम की धारा 2 [7 ]के द्वारा निरस्त कर दी गयी है ,धारा 2 [7 ] का कथन इस प्रकार है -''मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाहिता कोई स्त्री विवाह-विच्छेद की डिक्री इस आधार पर प्राप्त करने के लिए अधिकृत होगी कि वह अपने पिता या अभिभावक द्वारा पंद्रह वर्ष की आयु प्राप्त करने के पहले विवाह में दिए जाने पर अठारह वर्ष की आयु प्राप्त करने से पहले उसने विवाह को अस्वीकार कर दिया ,बशर्ते कि विवाह पूर्णावस्था को प्राप्त न हुआ हो ,
2 - मशहूर शाह बानो केस में सुप्रीम कोर्ट ने तलाक के मामले में कहा था कि मुस्लिम महिला कानून, 1986 (तलाकों के अधिकारों का संरक्षण) के सेक्शन 3 (1एचए) के मुताबिक अलग होने के बाद भी अपनी पूर्व पत्नी की देखभाल करने की जिम्मेदारी पति की है। यह अवधि इद्दत के भी परे है, क्योंकि महिला अपनी संपत्ति और सामान पर नियंत्रण रखती है।
3 - इसके साथ ही तीन तलाक रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट प्रतिबद्ध है और उसके निर्देश पर केंद्र सरकार ने भी तीन तलाक रोकने के लिए एक मसौदा तैयार किया है -
1-यह मसौदा गृह मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता वाले एक अंतर-मंत्री समूह ने तैयार किया है. इस में अन्य सदस्य विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, वित्त मंत्री अरुण जेटली, विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद और विधि राज्यमंत्री पीपी चौधरी थे.
2-प्रस्तावित कानून एक बार में तीन तलाक या 'तलाक ए बिद्दत' पर लागू होगा और यह पीड़िता को अपने तथा नाबालिग बच्चों के लिए गुजारा भत्ता मांगने के लिए मजिस्ट्रेट से गुहार लगाने की शक्ति देगा.
3-इसके तहत पीड़ित महिला मजिस्ट्रेट से नाबालिग बच्चों के संरक्षण का भी अनुरोध कर सकती है और मजिस्ट्रेट इस मुद्दे पर अंतिम फैसला करेंगे.
4-मसौदा कानून के तहत, किसी भी तरह का तीन तलाक (बोलकर, लिखकर या ईमेल, एसएमएस और व्हाट्सएप जैसे इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से) गैरकानूनी होगा.
5-मसौदा कानून के अनुसार, एक बार में तीन तलाक गैरकानूनी और शून्य होगा और ऐसा करने वाले पति को तीन साल के कारावास की सजा हो सकती है. यह गैर-जमानती और संज्ञेय अपराध होगा.
6-प्रस्तावित कानून जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में लागू होना है.
7-तलाक और विवाह का विषय संविधान की समवर्ती सूची में आता है और सरकार आपातकालीन स्थिति में इस पर कानून बनाने में सक्षम है, लेकिन सरकारिया आयोग की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए सरकार ने राज्यों से सलाह करने का फैसला किया.
इस प्रकार मुस्लिम विधि में महिलाओं की स्थिति उतनी भी बुरी नहीं है जितनी दिखाई जा रही है और जहाँ बुरी स्थिति है वहां सुधार करने की उच्चतम न्यायलय व् हमारी लोकतान्त्रिक सरकार द्वारा कोशिशें की जा रही हैं इसलिए आशा ही नहीं हमें विश्वास है कि मुस्लिम महिलाओं की ज़िंदगी में भी उन्नति का सूर्य जल्द ही उदित होगा और हाँ यह भी ज़रूरी है कि इसके लिए वे स्वयं भी प्रयास करें क्योंकि खुद को शिक्षा के उजाले से जोड़कर अपनी ज़िंदगी को वे बहुत जल्द 21 वीं सदी में जाने लायक बना पाएंगी और फिर सभी जानते हैं कि खुदा उसी की मदद करता है जो अपनी मदद आप करता है ,
कुमारी शालिनी कौशिक
[एडवोकेट ]
कांधला [शामली ]