बात उन दिनों की है जब मैं 19 साल का था । मैं उस समय दिल्ली के करोल बाग के देव नगर मोहल्ले में रहता था ।
और बाली नर्सिंग होम में कंपाउंडर का काम करता था ।
बड़े डॉक्टर से किसी बात पर कहासुनी हो गयी और मैंने ताव में आकर नौकरी छोड़ दी । गर्म खून जो था उबाल तो मरना ही था और ऊपर से भगवान का आशीर्वाद की माँ बाप का इकलौता बेटा । चिंता किस बात की थी । अचानक से दिमाग ठनका अरे यार ! घर जाऊंगा तो पिता जी नाराज हो जायेगे कि , बड़ी मुश्किल से तो नौकरी लगाई थी और नालायक ने वो भी छोड़ दी ।
बस भाई फिर क्या था दिमाग मे एक विचार ने जन्म लिया क्यों न घर छोड़ कर अपनी जिंदगी का आनंद लिया जाए । और पिताजी के नाम पत्र लिख कर घर की पत्र पेटिका में डाल कर नई दिल्ली से लखनऊ के लिए गोमती एक्सप्रेस पकड़ ली और लखनऊ पहुंच गया ।
चलो वहां जो भी हुआ जैसे भी रहा उन बातों पर यहीं पर चार बिराम लगता हूँ और उस घटना पर आता हूँ जिससे शीर्षक जुड़ा है ।
तो हुआ यूं कि मैंने चार बाग रेलवे स्टेशन से ऋषिकेश के लिए देहरादून एक्सप्रेस की एक टिकट खरीदी टिकट का मूल्य लगभग 45 या 35 रुपये का रहा होगा , जब टिकट लिया तो एक गत्ते का छोटा सा टुकड़ा और उस पर छपा हुआ नाम से मैं भर्मित हो गया , हिंदी में लिखा हुआ तो समझ मे नही आया छपाई साफ नही थी और इंग्लिश में कुछ यूं लिखा था hrishikesh अब मैं ठहरा पढ़ा लिखा लड़का और मैंने इग्लिश में लिखे नाम को हृषिकेश पढ़ लिया ।
अब दिमाग के घोड़े दौड़ने लगे अबे साले मैंने तो ऋषिकेश का टिकट लिया था और यह हृषिकेश कौन सी जगह है और यह सारी सोचने की परिक्रिया रेलगाडी में हो रही थी । आखिरी में मैंने एक सज्जन से पूछ ही लिया , श्रीमान जी ! आप से एक बात पूछनी थी , हाँ हाँ पूछो प्रतिउत्तर में जबाब आया ।
फिर मैंने पूछा भाई ! मैंने ऋषिकेश जाना है और इस टिकट पर हृषिकेश लिखा है यह हृषिकेश कहां है । उत्तर में वो भाई साहब बोले , क्यों टेंशन लेता है यह रेल गाड़ी हरिद्वार तो जाएगी ही वहां उतर जाना और वहां से ऋषिकेश की बहुत बसें जाती है ।
बस मैं उनकी बातों का अनुशरण करते हुए सुबह की नूतन किरणों और हर हर महादेव के दर्शन सहित हरिद्वार उतर गया ।
हरिद्वार रेलवे स्टेशन के अंदर ही एक रिक्शेवाले को पूछ बैठा , अरे भाई बस अड्डा कहाँ है …..आओं बाबू छोड़ देता हूँ , पैसा कितने लोगे मैंने पूछा जबाब में रिक्शावाला बोला 50 रुपये , अब मैंने सोचा कि जब यह किराया 50 रुपये कह रहा है तो बस अड्डा फिर तो काफी दूर ही होगा , और मैं राजा महाराजा की तरह अकड़ कर रिक्शे में बैठ गया । करीबन उसने आधा घंटे तक पता नही कहां कहां घुमाया और आखरी में बस अड्डे के पिछले गेट पर छोड़ दिया ।
मैं रिक्शा से उतरा और 50 का नोट तड़ी पूर्वक निकाल कर रिक्शे वाले को दे दिया । अब बस अड्डे के अंदर आया तो बस के बारे में मालूम किया पता चला कि ऋषिकेश की बस कुछ देर में आने वाली थी , तो इंतज़ार की टहला टाहली में मैं जब सामने के गेट के पास आया तो हैरान रह गया कि मैं ठगा गया हूँ । रेलवे स्टेशन और बस अड्डा तो आमने सामने है और मुझे रिक्शे वाले ने फालतू में आधा धंटे तक गुमाकर मुझे बेवकूफ बनाया है ।
ज्योति प्रसाद रतूड़ी.......✍️